लेखक परिचय-
महान स्जक साहित्यकार अशोक वाजपेयी का जन्म 16 जनवरी, 1941 में दुर्ग, छतीसगढ़ में हुआ था उनके पिता परमानन्द बाजपेयी और माता निर्मला देवी थी जो गागर, मध्य प्रदेश के निवासी थे। अशोक बाजपेयी जी की शिक्षा सागर से प्रारम्भ हुई और अन्त में दिल्ली से अंग्रेजी में एम ए. किया। अध्ययन कर भारतीय प्रशासनिक सेवा' में कई पदों पर रहे और अंत में महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति से सेवा नि हुए। आजकल वे दिल्ली में भारत सरकार की कला अकादमी के निदेशक हैंवाजपेयी जी की मुख्य कृतियाँ हैं-
"शहर अब भी संभावना है", "एक पतंग अरनंत में", "तत्पुरुष", "कहीं नहीं वहीं" 'बहुरि अकेला" इत्यादि कविता संग्रह । "फिलहाल'', "कुछ पूर्वाग्रह ", "समय से बाहर", "कविता का गल्प" आदि आलोचना की पुस्तकें। "तीसरा साक्ष्य", "साहित्य विनोद'", "कलाविनोद "कविता क जनपद" आदि पुस्तकें। वाजपेयी जी अनेक पत्रिकाओं का भी संपादन किया जिनमें "समवेत'", "पहचान "पूर्वाग्र'' "बहुवचन" आदि प्रमुख हैं।![]() |
9. आविन्यों - अशोक वाजपेयी |
9. आविन्यों - अशोक वाजपेयी
पाठ परिचय-
आविन्यों' दक्षिणी फ्रांस का मध्ययुगीन एक इसाई मठ है । लेखक यहाँ 19 दिनों तक् प्रवास जीवन बिताते हुए कविताएँ और गद्य लिखे । इस पाठ के अध्ययन से यह अनुभव किया जा सकता है कि किसी भी कविता या काव्य की रचना में रचनाकार की प्रतिभा के साथ-साथ उपयुक्त परिवेश भी सहायक है ।पाठ का सारांश-
'आविन्यों' दक्षिण फ्रांस में रोन नदी किनारे बसा एक पुराना शहर है जो कभी पोप की राजधानी थी अब वहाँ पफ्रांस और यूरोप का अति प्रसिद्ध लोकप्रिय रंग-समारोह हर वर्ष होता है । दस साल पूर्व वर्ष 1983-84 में पहले-पहल लेखक अशोक वाजपेयी को वहाँ जाने का अवसर प्राप्त हुआ था। उस साल वहाँ पीटर ब्रुक का विवादास्पद "महाभारत" की प्रस्तुति होने वाली थी जिसमें लेखक निर्मात्रित थे। रोन नदी के दूसरी ओर 'आविन्यों' का एक हिस्सा "वील नव्वल आविन्यों' (आविन्यों का नया गाँव) है । वहाँ कभी फ्रेंच शासकों ने पोपं की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए किला बनवाया । उसी में काथ्ूसियन सम्प्रदाय का एक इसाई मठ "ला शत्रूज" बना । चौदहवीं सदी से फ्रेंच क्रांति तक उसका धार्मिक उपयोग होता था । कार्थूसियन सम्प्रदाय मौन में विश्वास करता है।अत: "ला शत्रूज मठ का सारा स्थापत्य कला मौन का ही प्रतीक है। फ्रेंच क्रांति के बाद इस इमारतों पर जनसाधारण का अधिकार हो गया। साधारण लोग उसमें रहने लगे । 20वीं सदी के प्रारम्भ में "ला शत्रूजा' आदि पुराने स्थलों को फ्रांस सरकार ने पुन: खरीदकर उसका जी्णोद्धार का कार्य प्रारम्भ कर यथासम्भव पहले जैसा बनाने का सफल प्रयास किया। अब वह संरक्षित स्मारक के साथ-साथ कला-केन्द्र भी है जो रंगमच और लेखन से जुड़ा है । प्रतिवर्ष देश विदेश से यहाँ रंगकर्मी, अभिनेता, कवि, लेखक, नाटककार आदि आकर अपनी
रचना रचते हैं। "ला शत्रजा" में दो-दो कमरे का चैम्बर्स बना हुआ है जिसमें चौदहवीं सदी जैसा फर्नीचर, आधुनिक रनान घर एवं रसोईघर है। हरेक चैम्बरों का मुख्य द्वार एक कब्रगाह के चारों ओर बनी गली में खुलता है पीछे आंगन भी है । पिछवारे से भी एक दरवाजा है । वहाँ ठहरने वाले अतिथियों के लिए सप्ताह में पाँच दिन सायंकाल में सामूहिक भोजन की व्यवस्था की जाती है। जन्मदिन जहाँ चाहे वहाँ बना लें अधवा खरीदकर खा लें। वीरनत्व एक छोटा-सा गाँव है जहाँ पुस्तक-पत्रिकाओं की दूकानें, एक डिपार्टमेंटल एक कब्रगाह कई रेस्तरों और बार आदि हैं आविन्यों के अगल-बगल के गाँव शहरों से आविन्य तक बस आती-जाती है। पुनः फ्रेंच सरकार के सौजन्य से लेखक को "लाशत्रूजा" में रहकर रचनात्मक कार्य करत का न्योता 1994 में मिला। इस वर्ष लेखक, 19 दिनों तक वहाँ रहे तथा इस अवधि में पैंतीस कविताएँ और 27 गद्य रचनाएँ कीं। "
कनी वहाँ यथार्थवादी तीन कवि्यों के समूह (आन्द्रे व्रेताँ, रेनेशॉ और पाल एलुआर) मिलकर तीस कविताएँ लिखी थीं जिसे वहाँ के निदेशक ने अल्प अवधि का अत्यधिक महत्वपूर्ण कार्य कहा था। लेखक ने सुन्दर, नीविड़ सघन, सुनसान दिन-रात वाली भय पवित्रता और आसक्ति से युक्त वातावरण वाली आन्वियों के मठ में लिखी गई पुस्तकों को वहाँ का दस्तावेज कहा है ।, वहाँ रोचत एक कविता में उपरोक्त वातावरण की स्पष्ट झाँकी मिलती है।
प्रतीक्षा करते हैं पत्थर
कविता का भावार्थ-किसी देवता या काल का नहीं पता, नहीं धीरज से पत्थर किसकी प्रतीक्षा में है। उनके रेशा दिन-प्रतिदिन झड रहे हैं, शिरायें छिल रहें तो भी लगता है ये पत्थर प्रतीक्षा में लगे हैं। मेघ बरसता है, उसमें प्राचीनता की धुन गाते हुए वे पत्थर प्रतीक्षारत लग रहे हैं। पत्ते और घूप पड़ते हैं, सुनसान भययुक्त उस वातावरण में अपने हृदय सुखद सपने, अनसुलझी पहेलियाँ, समय चक्रं से पीड़ित समय, दुखी, भाषा, प्राचीनता आदि सब पत्थर को प्रभावित करती है लेकिन ये पत्थर बिन्ना पलक गिराये सीमाहीन भूभाग में खड़ा होकर सिर उठाये हुए, कामनाहीन मूक ये पत्थर पता नहीं किसकी प्रतीक्षा में रत हैं।
नदी के किनारे भी नदी
लेख की अनुभूति का सारांश-
आविन्यों और वीलनव्व को बाँटती हुई रोन नदी पर लेखक जाता है । प्रवाहित जल को देखता है तो तट को भी प्रवाहित अनुभव करता है। यथार्थता तो यह है कि कवि स्वभाव लेखक कविता को नदी तथा कवियों को कवितारूपी नदी का तट प्रतीत होता है । जैसे नदी में, जल की कमी नहीं उसी प्रकार कविता में भी शब्दों की कमी नहीं। यदि नदी तटस्थ लोगों को भिंगोकर आनन्दित करता है तो कविता भी कवित्व भावना को अहलादित कर देती है ।विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता. नदी च्हेरा लोगों को याद कर कवित्व भाव से कविता में आये एक प्रश्न कैसी तुम नदी हो ? का उत्तर "जैसी तुम कविता हो" देकर नदी और कविता में सम्बन्ध दर्शाया है।
बोध और अभ्यास
पाठ के साथ
1. आविन्यों क्या हैं और वह कहाँ अवस्थित हैं ?
उत्तर- "आविन्यों" एक पुराना शहर है। वह दक्षिण फ्रांस में रोन नदी के तट पर अवस्थित है।2. हर बरस आविन्यों में कब और कैसा समारोह हुआ करता है ?
उत्तर- हर बरस आविन्यों में गर्मी के मौसम में फ्रांस और यूरोप का अति प्रसिद्ध लोकप्रिय रंग-समारोह हुआ करता है जिसमें देश-बिदेश बड़े-बड़े कवि, नाटककार और लेखक आमंत्रित होते हैं।3. लेखक आविन्यों किस सिलसिले में गये थे ? वहाँ उन्होंने क्या देखा-सुना ?
उत्तर- "आविन्यों" में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाला लोकप्रिय रंग-समारोह में भाग लेने के लिए लेखक गये थे। उन्होंने देखा सम्पूर्ण आविन्यां समारोह के आयोजन के समय रंग-स्थली के रूप में बदल जाता है। रोन नदी के किनारे अवस्थित यह पुराना शहर प्राकृतिक सौन्दर्य से सम्पन्न विशेष स्थापत्य काला से परिपुष्ट है। फ्रेंच क्रांति के बाद आविन्यों की किला साधारण लोगों के अधिकार में था। 20वीं सदी में फ्रांस सरकार ने उन लोगों से खरीदकर इस शहर का जीर्णोद्धार करवाया तथा यहाँ के भवनों का संरक्षित धरोहर की मान्यता दी ।4. "ला शत्रुजा" क्या है और कहाँ अवस्थित है ? आजकल उसका क्या उपयोग होता है ?
उत्तर- "ला शत्रूजा"' एक इमारत है जो आविन्यों में अवस्थित है जो कभी पोप की राजधानी थी । फ्रेंच शासकों ने पोप की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए एक किला बनवाया। उसी में कार्थुसियन सम्प्रदाय का एक मठ बना वही "ला शत्रूजा" है। अभी इसका उपयोग कला केन्द्र के रूप में होता है ।5. ला शत्रजा का अंतरंग विवरण अपने शब्दों में प्रस्तुत करते हुँए यह स्पष्ट कीजिए कि लेखक ने उसके स्थापत्य को "मान स्थापत्य" क्यों कहा है?
उत्तर- "ला शत्रुजा" में दो-दो कमरे का चैम्बर्स बना है जिसमें चौदहवीं सदी जैसा फर्नीचर आधुनिक रसोईघर स्नान घर एवं आधुनिक संगीत व्यवस्था उपलब्ध है। लॉँ शत्रूजा के प्रत्येक चेम्बर्स का मुख्य द्वार एक कब्रगाह के चारों ओर बनी गलियारे में है। पीछे से भी एक दरवाजा है। पीछे में एक आँगन भी है । अतिथियों का भोजन सप्ताह में पांच दिन सामूहिक रूप में व्यवस्था सायंकालीन होती है। अन्य दिन या जलपान आदि की व्यवस्था अतिथि के इच्छा अनुकूल होती है।6. लेखक आविन्यों क्या साथ लेकर गये थे और कितने दिनों तक रहे ? लेखक की उपलब्धि क्या रही ?
उत्तर- लेखक "आविन्यों" की यात्रा में अपने साथ हिन्दी का टाइपराइटर तीन चार पुस्तकें और संगीत के कुछ टेप्स ले गये थे। वे वहाँ 19 दिनों तक रहे जिसमें लेखक ने 35 कविताएँ और 27 गद्य रचनाएँ लिखीं।7. "फ्रतीक्षा करते हैं पत्थर" शीर्षक कविता में कवि क्यों और कैसे पत्थर का मानवीकरण करता है ?
उत्तर- "प्रतीक्षा करते हैं पत्थर" शीर्षक कविता में पत्थर को मानवीकरण करके कवि कहता है-ये पत्थर धैर्यपूर्वक मनुष्य की तरह किसी की प्रतीक्षा में हो, ऐसा लग रहा है। प्रतीक्षा की घड़ी दु:खद होती है। धैर्यशील मानव की तरह ये पत्थर मेघ, धूप, पत्ते, अंघेरेपन नीरवता की बिना परवाह किये अविचल हो प्रतीक्षा में रत हैं । सुनहरे सपने लिए हुए, अनसुलक्षी पहेलियाँ से युक्त, समय चक्र से पीड़ित, लड़खड़ाती बोली और बुढ़ापा के लेकर जैसे कोई मनुष्य किसी की प्रतीक्षा में हो, ऐसा यह पत्थर लग रहा है ।8. आविन्यों के प्रति कैसे अपना सम्मान प्रदर्शित करते हैं ?
उत्तर- आविन्यों के प्रति अपना सम्मान प्रदर्शित करते हुए कहा-हर जगह हम कुछ ला शत्रूजा में जो पाया उसके लिए गहरी कृतज्ञता मन में है और जो गँवाया उसकी गहरी पीड़ा भी।9. मनुष्य जीवन से पत्थर की क्या समानता और विषमता है ?
उत्तर- लेखक के अनुकूल मानव जीवन और पत्थर में समानता है और कुछ विषमता भी। समानता- मानव घैर्यवान होता है तो पत्थर भी धर्म से प्राकृतिक आपदा को सहकर धैर्यवान होने का प्रमाण देता है। मनुष्य अपनी कामना के लिए प्रतीक्षा करता है। पत्थर भी युगों से प्रतीक्षारत प्रतीत होते हैं। विषमता मनुष्य प्रार्थना में सिर झुकाता है । लेनिक पत्थर नहीं। मनुष्य प्रार्थना में ईश्वर से कुछ कहता है लेकिन पत्थर नहीं। मनुष्य का दिल पसीजता है पत्थर का नहीं। इत्यादि ।10. इस कविता से आप क्या सीखते हैं ?
उत्तर- इस कविता से हमें सीख मिलती है कि मनुष्य को अपने जीवन में प्रतीक्षा का महत्व देता चाहिए। पत्थर की भौति हरेक दुःखों को सहकर समय का इन्तजार करना चाहिए। मनुष्य को अपने क्म पथ से विचलित न चाहिए। जैसे पत्थर अविचलित होकर न जाने किसका इन्तजार कर रह्म है।11. नदी के तट पर बैठे हुए लेखक को क्या अनुभव होता है ?
उत्तर- नदी के तट पर बैठे हुए लेखक को अनुभव होता है कि जल स्थिर है और तट ही बह रहा है। नदी के पास होना लेखक को नदी हो जाना जैसा अनुभव हो रहा है।12. नदी तट पर लेखक को किसकी याद आती है और क्यों ?
उत्तर- नदी तट पर लेखक को विनोद कुमार शुक्ल की लिखी एक कविता "नदी चेहरा लोगों" की याद आती है क्योंकि इस कविता में शुक्ल जी ने नदी को मानवीकरण करते हुए बताया है कि नदी के किनारे गया हुआ मनुष्य भी नदी के समान हो जाता है।13. नदी और कविता में लेखक क्या समानता पाता है ?
उत्तर- नदी और कविता में लेखक ने समानता बताते हुए कहा है कि नदी प्रवाहमयी हाता है तो कविता भी कवि के हृदय की प्रवाइमयी धारा है। नदियों में जल की कमी नहीं, अन्य जल संसाधन भी नदी के जल में पूर्णता लाती है । उसी प्रकार कवित्व भाव से कविता अपने-आप में परिपूर्ण होती है । अन्य संसाधन जैसे नीरव क्षेत्र, नदी के तट, वन प्रदेश के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के शब्द कविता में पूर्णता लाने का काम करता है। चाहिए। जैसे पत्थर अविचलित होकर न जाने किसका इन्तजार कर रह्म है।14. किसके पास तटस्थ रह पाना संभव नहीं हो पाता और क्यों ?
उत्तर- नदी और कविता के पास तटस्थ रह पाना संभव नहीं हो पाता। क्योंकि नदी के तट पर हम नदी अपने जल से भिंगो देती है। उसी प्रकार कविता भी लोगों को आनन्दित करती है। नदी योद् अपनी प्रवाह में हमें बहाती है तो कविता के प्रवाह में भी कवि का मन प्रवाहित हो जाता है।भाषा की बात
1. निम्नांकित के लिङ्ग निर्णय करते हुए वाक्य बनावें ।
उत्तर- खदान, आवास, बन्दिश, इमारत, रंगकर्मी, अवधि, नहानघर, आगन, आसक्ति, प्रणति ।खदान (स्त्री)-खदान धँस गई।
आवास (पु०)- पुराना आवास मिला है।
बन्दिश (पु०)-बन्दिश सुनाया गया।
इमारत (स्त्री०)-यह पुरानी इमारत है।
रंगकर्मी (पु०)- रंगकर्मी का आना बंद हो गया।
अवधि (स्त्री)-अवधि समाप्त हो गई।
नहानुघर (पु०)-नहान घर अच्छा है ।
आँगन (स्त्री०)-आँगन की लम्बाई अधिक है।
आसक्ति (स्त्री०)- आसक्ति मिट गई।
प्रणति (स्त्री०)- प्रणति समाप्त हुई।
2. निम्नांकित के समास-विग्रह करते हुए मेद बताएँ-
यथासंभव, पहले-पहल, लोकप्रिय, रंगकर्मी, पचासेक, कवित्रयी, कविप्रणति, प्रतीक्षारत, अपलक, तदाकार ।।उत्तर- यथासंभव = संभव के अनुकूल = अव्ययीभाव ।
पहले-पहल = पहले-पहले= अव्ययीभाव
लोकप्रिय = लोकों के प्रिय = तत्पुरुष ।
रंगकर्मी = रंग के कर्मी =तत्पुरुष ।
पचासेक = पचास का समूह = द्विगु समास
कवित्रयी = तीन कवियों का समूह =द्विगु समास ।
प्रतीक्षारत = प्रतीक्षा में रत = तत्पुरुष
अपलक = बिना- पलक मारे = नञ् समास ।
तदाकार = उसका आकार =तत्पुरुष ।
3. पाठ से अहिन्दी स्रोत के शब्द एकत्र कीजिए ।
उत्तर- बन्दिश, हिस्सा, इमारतों । चैम्बर, फर्नीचर, रसोईघर । बेहद | डिपार्टमेंटल, स्टोर,रेस्तराँ, बार, कस्बों । टाइपराइटर, टैप्स, अचरज, दस्तावेज, शायद । बिरादरी । शामिल, इत्यादि ।4. निम्नलिखित शब्दों के वचन बदलें-
रंगकर्मी, कविताएँ, उसकी, सामग्री, अनेक सुविधा, अवधि, पीड़ा, पत्तियाँ, यह ।।उत्तर- रंगकर्मी = रंगकर्मियां । कविताएँ = कविता । उसकी = उनकी । सामग्री = सामग्रियाँ । अनेक = अनेकों । सुविधा = सुविधाएँ । पीड़ा = पीड़ाएँ। पत्तियाँ = पत्ती । यह = ये ।