लेखक परिचय-
हिन्दी आलोचकों मं रामविलास शर्मा का स्थान महत्वपूर्ण है । इनका जन्म 10 अक्टूबर, 1912 ई० में ऊँचगाँव उनाव (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। 1932 ई० में बी० ए० और 1934 ई० में एम० ए० करके 1938 तक शोध-कार्य में संलग्न रहे । 1938 से 1943 तक लखनऊ विश्वविद्यालय में अंग्रेजी का अध्यापन कार्य किया। 1943 से 1971 तक बलवंत राजपूत कॉलेज आगरा में शिक्षण कार्य कर के० एम. हिन्दी संस्थान के निदेशक पद पर रहकर1974 ई. में अवकाश प्राप्त किये। वे भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के महामंत्री भी रहे। 30 मई, 2000 ई० में उनका निधन हो गया।
शर्मा जी का हिन्दी गद्य में ऐतिहासिक योगदान है ।
इनकी प्रमुख रचना है-
"निराला की साहित्य साधना", "आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हिन्दी आलोचना", " भारतन्दु हरिश्चन्द्र", "प्रेमचंद और उनका युग", "भाषा और समाज", "महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नव जागरण","भारत की भापा समस्या", "नयी कविता और अस्तित्ववाद", " भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद" मूल्यांकन", "विराम चिद्न", "बड़े भाई" इत्यादि ।![]() |
7. परम्परा का मूल्याकन -रामविलास शर्मा |
7. परम्परा का मूल्याकन -रामविलास शर्मा
निबन्ध परिचय-
प्रस्तुत निर्बंध "परम्परा का मूल्यांकन" एक अंश है. जो समाज, साहित्य और परंपरा के पारस्परिक संबंधों को दर्शाता है तथा नि्बंध साहित्य के विकास में क्रांतिकारी भूमिका निभाता है नई पीढ़ी के लिए निबंध परम्परा और आधुनिकता की समझ पैदा करने में भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी ", "परम्परा का यह निबंध सहायक है ।जो लोग साहित्य में युग-परिवर्तन करना चाहते हैं, जो लोग लकीर के फकीर नहीं बनकर रूढ़ियाँ तोड़कर क्रांतिकारी साहित्य को रचना चाहते हैं उनके लिए परम्परा का ज्ञान आवश्यक है। समाज में बुनियादी परिवर्त्तन कर वर्गहीन शोषणमुक्त समाज की स्थापना करना ही ऐतिहासिक भौतिकवाद कहा जाता है। ऐतिहासिक भौतिकवाद के लिए जो महत्व इतिहास का है वही महत्व आलोचना के लिए साहित्य की परम्परा का है। जिसके ज्ञान से प्रगतिशील आलोचना का विकास होता है। अर्थात् प्रगतिशील आलोचना साहित्य की परम्परा का मूर्त ज्ञान है।
साहित्य की परम्परा का मूल्यांकन हेतु प्रथम उस साहित्य का मूल्य निरघारण आवश्यक है। जो शोपक बर्गों के विरुद्ध श्रमिक जनता के हितों को प्रतिविम्बित करता है ।। उस साहित्य पर ध्यान देना होगा जिसकी रचना की बुनियाद शोषित जनता के श्रम पर है तथा यह भी देखना होगा कि वह साहित्य वर्त्तमान समय में लोगों के लिए कहाँ तक उपयोगी है। क्या वह अभ्युदयशील वर्ग का साहित्य है या हृासमान वर्ग का । जहाँ पूँजीवाद का विकास होता है वहाँ ही सम्पत्तिशाली और सम्पतिहीन वर्ग एक-दूसरे के विरोधी होते हैं। साहित्य का क्षेत्र व्यापक होता है इसलिए साहित्य को सम्पत्तिशाली वर्गों के हित में कहना उचित नहीं है। साहित्य का सम्बन्ध मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन से है, उसमें मनुष्य की भावनाएँ समाहित होती हैं। साहित्य का यह पक्ष स्थायी भी है।
सामाजिक विकास पक्ष में सामन्ती सभ्यता और पूँजीवादी सभ्यता दोनों सहायक हैं.।
कवि लोग पूर्ववर्ती कवियों की रचना को मनन कर उनसे कुछ सीखते हैं तथा नई रचना परम्परा को जन्म देते हैं ।वे नकल नहीं करते क्यांकि नकल करना असमर्थता का सूचक है। यदि किसी साहित्य का कोई अनुवाद करता है तो उस साहित्य का वास्तविक सौन्दर्य नष्ट हो जाता है । जैसे औद्योगिक उत्पादन कलात्मक उत्पादन द्वारा निर्मित वस्तु का सौन्दर्य नष्ट हो जाता है ।
मनुष्य और परिस्थितियों का सम्बन्ध द्वन्द्वात्मक है। साहित्य स्वाघीन होता है। गुलामी से प्रमावित सध्यता भी स्वाधीन होती है क्योंकि अमेरिका और एथेन्स दोनां गुलाम थे लंकिन एथेन्स की सम्यता ने सारे यूरोप को प्रभावित किया। सामन्तवाद विश्वभर में कायम रहा लेकिन काव्य के भारत और ईरान दो ही कन्द्र थे। पूँजीवादी विकास यूरोप के तमाम देशों में हुआ पर रैफेल, लाओनारबों का विंची और माइकेल ऐजोली इटली की देन है इस प्रकार कहा जा सकता है कि विशेष सामाजिक परिस्थितियों में ही कला का विकास होता है। सामान्य सामाजिक परिस्थितियों में नहीं। यहाँ हमें असाधारण प्रतिभाशाली मनुष्यों की अद्वितीय भूमिका देखने को मिलती है। साहित्य निर्माण में प्रतिभाशाली मनुष्यों की भूमिका निर्णायक है लेकिन प्रतिभाशाली मनुष्यों की कृति में कोई दोष नहीं होता, हम नहीं दावा कर सकते हैं। कला का निदाष होना भी दोष ही है। जब तक कला में दोष नहीं होगा तो जिसे हम अद्वितीय कला कहते हैं उसमें अन्य प्रतिभाशालियों का उल्लेखनीय कार्य सम्भव नहीं हो सकता है। उसी प्रकार जिस काव्य-कला या कवि अथवा साहित्यकारों की आलोचना नहीं होती है। काव्यकला, कवि अथवा साहित्यकार को जानने वाला भी नहीं रहेगा।
साहित्य के विकास में प्रतिभाशाली मनुष्यों जन समुदायों और सभी जातियों की भूमिका होती है। बयोंकि यूरोप के सांस्कृतिक विकास में जो भूमिका प्राचीन यूनानियों का है उतना अन्य का नहीं। जन समुदाय जब एक व्यवंस्था से दूसरी व्यवस्था में प्रवेश करता है तो उनकी अस्मिता नष्ट नहीं हो जाती बल्कि और अधिक बढ़ जाती है। किसी भी राष्ट्र में बहुभाषी लोग होते हैं, बहुत जातियाँ होती हैं, लेकिन जब राष्ट्र पर मुसीचघत जाती है तो वे केवल राष्ट्र की अस्मिता को समझते हैं किसी भाषा विशेष का नहीं न कि विशेष जाति का। भारत की राष्ट्रीयता अद्वितीय है क्योंकि यहाँ की राष्ट्रीयता जाति के आधार पर कायम नहीं हुआ बल्कि यहाँ की राष्ट्रीयता हमारी संस्कृति और इतिहास की देन है यहाँ के सामाजिक विकास में कवियों, लेखकों की भूमिका निर्णायक रही हैं।समाजवादी व्यवस्था कायम होने पर भारत की राष्ट्रीयता और अधिक पुष्ट होगी । समाजवाद
हमारी राष्ट्रीय आवश्यकता है क्योंकि देश के संसाधनों का सही उपयोग समाजवादी व्यवस्था मही सम्भव है ।अर्थात् भारत की राष्ट्रीय क्षमता का पूर्ण विकास समाजवादी व्यवस्था पर ही सम्भव है ।और साहित्य की परम्परा का पूर्ण ज्ञान समाजवादी व्यवस्था में ही सम्भव है। समाजवादीसंस्कृति प्राचीन संस्कृति से नाता नहीं तोड़ती बल्कि उसको आत्मसात करके आगे बढ़ती है। अभी हमारे देश के निरक्षर, निर्धन लोग हमारे पुराने साहित्य की महान उपलब्धियों से अनभिज्ञ हैं लेकिन जब वे पढ़ेंगे तब उन्हें साहित्य पढ़ने का अवसर प्राप्त होगा और सही अर्थ में साहित्य परम्परा का मूल्यांकन कर पाएँगे।
बोध और अभ्यास
पाठ के साथ
1. परम्परा का ज्ञान किनक लिए सबसे ज्यादा आवश्यक है और क्यों ?
उत्तर-जी लोग साहित्य में युग-परिवर्तन करना चाहते हैं, जो लोग लकीर के फकीर नहीं बनकर रूढियाँ तोड़कर, क्रांतिकारी साहित्य की रचना चाहते हैं, उनके लिए परम्परा का ज्ञान आवश्यक है । क्योंकि परम्परा के ज्ञान से प्रगतिशील आलोचना का विकास होता है । अर्थात्प्रगतिशील आलोचना साहित्य परम्परा का मूर्त ज्ञान है।
2. परंपरा के मूल्यांकन में साहित्य के वर्गीय आधार का विवेक लेखक क्यों महत्वपूर्ण मानता है ?
उत्तर-परंपरा के मूल्यांकन में साहित्य के वर्गीय आधार का विवेक लेखक महत्वपूर्ण मानता है क्योंकि साहित्य की परंपरा का मूल्यांकन हेतु प्रथम उस साहित्य का मूल्य निरधरण आवश्यक है जो शोषक वर्गों के विरुद्ध श्रमिक जनता के हितों को प्रतिबिम्बित करता है। उस साहित्य पर ध्यान देना होगा जिसकी रचना का बुनियाद शोपित जनता के श्रम पर है तथा यह भी देखना होगा कि वह साहित्य वर्तमान समय में लोगों के लिए कहाँ तक उपयोगी है । क्या वह अभ्युदयशील वर्ग का साहित्य है या हासमान वर्ग का ।3. साहित्य का कौन-सा पक्ष अपेक्षाकृत स्थाई होता है ? इस संबंध में लेखक की रय स्पष्ट करें ।
उत्तर- साहित्य मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन से संबद्ध है। आर्थिक जीवन के अलावा मनुष्य एक प्राणी के रूप में भी जीवन बिताता है। साहित्य में मनुष्य बहुत -सी आदिम भावनाएँ प्रतिफलित छोटी हैं जो उसे प्राणिमात्र से जोड़ती हैं। साहित्य केंवल विचार-धारा मात्र नहीं है बल्कि उसमें ुष्य का इन्द्रिय-बोध, उसकी भावनाएँ भी व्यंजित होती हैं। साहित्य का यह पक्ष अपेक्षाकृत स्थाई होता है।4. "साहित्य में विकास प्रक्रिया उसी तरह सम्पन्न नहीं होती, जैसे समाज में लेखक का । आशय स्पष्ट करें।
उत्तर-साहित्य में विकास प्रक्रिया उसी तरह सम्पन्न नहीं होती जैसे समाज में । लेखक के कहने का आशय है कि जैसे समाज में विकास की प्रक्रिया सम्पन्न नहीं होती है उसी प्रकार साहित्य क्षेत्र में भी विकास प्रक्रिया पूरी नहीं होती । जब हम साहित्य की विकास प्रक्रिया की सम्पन्न, परिपूर्ण दोष रहित मान लेंगे तो फिर कोई कवि ही नहीं होगा तथा स्माहित्य का विकास भी नहीं होगा । विकासशील समाज में विकास प्रक्रिया कभी सम्पन्न नहीं होती है उसी प्रकाए साहित्य में भी विकास प्रक्रिया सम्पन्न नहीं होती अर्थात् जैसे-जैसे समाज विकास करेंगा बैसे वैसे साहित्य की विकास प्रक्रिया चलती रहेगी ।5. लेखक मानव चेतना. को आर्थिक संबंधों से प्रभावित मानते हुए भी उसकी सापेश्व स्वाधीनता किन दृष्टांतों द्वारा प्रमाणित करता है ?
उत्तर- लेखक मानव चेतना को आर्थक सम्बन्धों से प्रभावित मानते हुए भी उसकी साथक्ष स्वाधीनता स्वीकार करता है क्योंकि आर्थिक संबंधों से प्रभावित होना एक परिस्थिति है। उस परिस्थितिवश स्वाधीन भावअमेरिका और एथेन्स दोनों गुलाम थे लेकिन एथेन्स की सभ्यता ने सारे यूरोप को प्रभावित किया, अमेरिका नहीं। उसी प्रकार सामन्तवाद दुनियाभर में कायम रहा लेकिन भारत और ईरान दो ही
काव्य के केन्द्र थे।
6. साहित्य के निर्माण में प्रतिभा की भूमिका स्वीकार करते हुए लेखक किन खतरों से त्याग करना अनिवार्य नहीं। लेखक इस पक्ष में दृष्टंत देता है कि आगाह करता है।
उत्तर- साहित्य निर्माण में प्रतिभाशालियां की भूमिका लेखक स्वीकार करता है क्यॉकि साहित्य निर्माण में उनकी भूमिका अद्वितीय और निरणायक है लेकिन इस स्वीकारात्मक पक्ष में खत भी है, क्योंकि प्रतिभाशाली मनुष्य की कृति (साहित्य) में दोष नहीं होता, हम दावा नहीं कर सकते। कला का निर्दोष होना भी एक दोष है। जवतक कला में दाप नहीं होगा जिसे हन अद्वितीय कला कहदे हैं उस कला के पक्ष में अन्य प्रतिभाशालियों का उल्लेखनीय कार्य सम्भव नहीं हो सकता है।7. राजनीतिक मूल्यों से साहित्य के मूल्य अधिक स्थायी कैसे होते हैं ?
उत्तर- राजनीतिक मूल्यों से साहित्य के मूल्य अधिक स्थाई होता है। इस पक्ष में लेखक कहते हैं कि अंग्रेज कवि टेनीसन ने लैटिन कवि वर्जिल पर एक कविता में लिखा कि रोसत साम्राज्य का वैभव समाप्त हो गया पर वर्जिल के काव्य सागर की ध्वनि-तरंगें हमें आज भी र्नई देती हैं और हृदय को आनन्द विह्वल कर देती है। उसी प्रकार जब किस साम्राज्य का राजनतिक मूल्य समाप्त हो जाएगा तो वहाँ के कवि, साहित्यकार संस्कृति के आकाश में चमकते नजर तथा उनका प्रकाश पूर्व की अपेक्षा करोड़ों लोगों को नई दिशाएँ दंगी।8. जातीय अस्मिता का लेखक किस प्रसंग में उल्लेख करता है और उसका क्या महत्व चदता है?
उत्तर- जातीय अस्मिता का उल्लेख लेखक साहित्य के विकास प्रसंग में करता है । उसके महत्व को बताने के लिए लेखक का कहना है कि साहित्य के विकास में प्रतिभाशाली मनुष्यं की तरह जन समुदायों और जातियों की विशेष भूमिका होती है क्योंकि यूरोप के सांस्कृतिक विकास में जो भूमिका प्राचीन यूनानियों की है वह अन्य किसी जाति की नहीं।9. जातीय और राष्ट्रीय अस्मिताओं के स्वरूप का अंतर करते हुए लेखक दोनों में क्या समानत बतात है?
उत्तर- जातीय और राष्ट्रीय अस्मिताओँ के स्वरूप का अन्तर बताते हुए लेखक ने कहा है।कि किसी भी राष्ट्र में अनेक जातियाँ रहते हैं और उनकी अस्मिताएँ भी अनेक होती हैं। परन्तु एक राष्ट्र की एक अस्मिता होतो है। परन्तु जिस समय किसी राष्ट्र पर मुसीवत आती है तो जातियों की अस्मिता को गौण कर विविध जातियों में केवल राष्ट्र की अस्मिता प्रधान हो जाती है। लेकिन दोनों में समानता भी है क्योंकि जातीय अस्मिता ही राष्ट्रीय अस्मिता के रूप में बड़ा बन जाता है अथवा राष्ट्रीय अस्मिता जातीय अस्मिताओं को आत्मसात कर बृहद् रूप धारण कर मुसीबत से रक्षा करने में सहायक सिद्ध होता है।10. बहुजातीय राष्ट्र की हैसियत से कोई भी देश भारत का मुकाबला क्यों नहीं कर सकता ?
उत्तर-बहुजातीय राष्ट्र अनेक हैं। सोवियत संघ में सबसे अधिक जातियाँ शामिल हैं परन्त उनका इतिहास मिला- जुला राष्ट्रीय इतिहास नहीं है। जैसा कि भारतीय जातियों का राष्ट्रीय इतिहास एक है। यूरोप के लोग यूरोपियन संस्कृति की बात करते हैं पर यूरोप कभी राष्ट्र नहीं बना बल्कि दो भागों में विभक्त होकर राष्ट्रीयता को विभाजित कर डाला । बहुजातीय राष्ट्र की हैसियत से भारत का मुकाबला कोई राष्ट्र नहीं कर सकता है।11. भारत की बहुजातीयता मुख्यत: संस्कृति और इतिहास की देन है । कैसे ?
उत्तर- भारत की बहुजातीयता मुख्यत: संस्कृति और इतिहास की देन है क्योंकि यहाँ की राष्ट्रीयता एक जाति द्वारा दूसरी जातियों पर राजनीतिक प्रभुत्व कायम करके स्थापित नहीं हुई हैं । बल्कि हमारी राष्ट्रीयता बहुजातियों को अपने में पिरोकर अद्वितीय माना जाता है ।12. किस तरह समाजवाद हमारी राष्ट्रीय आवश्यकता है ? इस प्रसंग में लेखक के विचारों पर प्रकाश डालें ।
उत्तर-आज समाजवाद हमारी राष्ट्रीय आवश्यकता है। लेखक के विचार से यदि समाजवादी व्यवस्था कायम होने पर जारशाही रूस नवीन राष्ट्र के रूप में पुनर्गठित हो सकता है तो भारत में समाजवादी व्यवस्था कायम होने पर यहाँ की राष्ट्रीय अस्मिता पहले से कितना पुष्ट होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है। देश के साधनों का सदुपरयोग समाजवादी व्यवस्था में ही संभव है। छोटे-बड़े राष्ट्र जो भारत से ज्यादा पिछड़े थे, समाजवादी व्यवस्था कायम करने के बाद पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा शक्तिशाली हो गये। भारत की राष्ट्रीय क्षमता का पूर्ण विकास समाजवादी व्यवस्था से ही सम्भव है।13, निबंध का समापन करते हुए लेखक कैसा स्वप्न देखता है ? उसे साकार करने में परंपरा की क्या भूमिका हो सकती है ?
उत्तर- लेखक निबंध का समापन करते हुए उस दिन का स्वप्न देखता है जब देश में समाजवादी व्यवस्था कायम होगी । उस दिन अधिक-से-अधिक लोग साक्षर होंगे। तब वे साहित्यकारों की रचना को पढ़ेंगे। जब पढ़ेंगे तो उस साहित्य से उनका पुरा परिचय होगा और सही अर्थ में साहित्य परम्परा का मूल्यांकन कर पाएँगे ।14. साहित्य सापेक्ष रूप में स्वाधीन होता है। इस मत को प्रमाणित करने के लिए लेखक ने कौन-से तर्क और प्रमाण ठपस्थित किए हैं ?
उत्तर-साहित्य साक्षेप रूप में स्वाधीन होता है जबकि परिस्थितिवश जातियाँ पराधीन होती हैं। इस मत को प्रमणित करने के लिए लेखक ने प्रमाण उपस्थित करते हुए कहा है कि अमेरिका और एथेन्स दोनों गुलाम हुए लेकिन एथेन्स का साहित्य सम्पूर्ण एथेन्स को प्रभावित किया न कि अमेरिका साहित्य ।15. व्याख्या करें-
विभाजित बंगाल से विभाजित पंजाब की तुलना कीजिए तो ज्ञात हो जाएगा कि साहित्य की परम्पणा का ज्ञान कहाँ ज्यादा है, कहाँ कम है और इस न्यूनाघिक ज्ञान के सामाजिक परिणाम क्या होते हैं।
उत्तर-परन्तु, पॉक्तयोँ हमारे पाठ्य पुस्तक गोधूली भाग-2 के गद्य खण्ड "परम्परा का मूल्यांकन" पाठ से ली गयी हैं जिसके लेखक राम विलास शर्मा जी हैं। निबंध संदर्भ में लेखक का मत है कि मानव समाज बदलता है और अपनी पुरानी औस्मती कायम रखता है। जो तत्व मानव समुदाय को एक जाति के रूप में संगठित करते हें उनमें इतिहास और सांस्कृतिक परंपरा के आधार पर निर्मित यह अस्मिता का ज्ञान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। बगाल विभाजित होकर भी बंगाल के लोगों ने अपनी साहित्यिक परंपरा का ज्ञान अविभाजित रख लेकिन पंजाब विभाजन के बाद दोनों का अलग-अलग साहित्यिक परंपरा बनी । अत: विभाि बंगाल से विभाजित पंजाब की तुलना की जाय तो ज्ञान हो जायगा कि साहित्य परम्परा की शी कहाँ कम और कहाँ ज्यादा है ? इस न्यूनाधिक ज्ञान के सामाजिक परिणाम क्या होते हैं ।भाषा की बात
1. इस पाठ से देश अविकारी (अव्यय ) शब्द चुनिए और उनका वाक्यों में प्रयोग कीजिए ।
उत्तर-जो = जो लोग यहाँ आते हैं वे रहते नहीं। वही = बही आलोचना सर्वत्र हो रही है। वह = वह साहित्य निर्दाष नहीं है। यह = यह पुस्तक पढ़ो । जितना = जितना अध्ययन जरूरी है ठतना होता नहीं। अनेक = अनेक तत्व यहाँ दिखते हैं। जहाँ = जहाँ जाओगे में वहाँ जाऊँगा । इसी तरह = इसी तरह आया करो । जैसे = जैसे बह आयेगा वैसे ही जायेगा यदि =- यदि वह आयेगा तो जाने मत देना ।2. निम्नलिखित पदों में विशेष्य का परिवर्तन कीजिए-
उत्तर-बुनियादी परिवर्त्तन = युग परिवर्तन ।।मूर्त्त ज्ञान = अमूर्त्त ज्ञान । अभ्युदयशील वर्ग = हासमान वर्ग। समाजवादी व्यवस्था = पूँजीवादी व्यवस्था । श्रमिक जनता = शोषित जनता । प्रगतिशील आलोचना = साहित्यिक आलोचना । अद्वितीय भूमिका = द्वितीय भूमिका । राजनीतिक मूल्य = सामाजिक मूल्य ।
3. पाठ से संज्ञा के भेदों के चार-चार ठदाहरण चुने ।
उत्तर-1, जातिवाचक संज्ञा-लोग, युग, मनुष्य, यूनानी । 2, व्यक्तिवाचक संज्ञा-व्यास, अमेरिका, यूरोप, वाल्मीकि । 3., भाववाचक संज्ञा- लकीर के फकीर, रूढ़ियाँ, गुलामी, भावनाएँ । 4. समूहवाचक संज्ञा- सम्पत्तिशाली वर्ग, सम्पत्तिहीन वर्ग, साहित्यकारों, भारतीय | 5. द्रव्यवाचक संज्ञा-न्यूनाधिक, कम, ज्यादा, करोड़ों ।4. निम्नलिखित सर्वनाम के प्रकार बताते हुए उनका वाक्य में प्रयोग करें-
जो = सम्बन्धवाचक सर्वनाम = जो पढ़ेगा वह पास करेंगा ।वे = पुरुषवाचक सर्वनाम = वे लोग पढेंगे।
वह = पुरुषवाचक सर्वनाम = वह व्यक्ति अच्छा है।
यह = निश्चयवाचक सर्वनाम = यह फूल ही सुन्दर है।
मैंने = पुरुषवाचक सर्वनाम = मैंने पुस्तक पढ़ ली।
वेसा = सम्बन्धवाचक सर्वनाम = वैसा काम करोगे तो नाम होगा।
कोई = अनिश्चयवाचक सर्वनाम = वहाँ कोई था।
कुछ = अनिश्चयवाचक सर्वनाम = कुछ लड़के यहाँ आये थे।
कौन = प्रश्नवाचक सर्वनाम = कौन पढ़ता है।
जैसा = सम्बन्धवाचक सर्वनाम = जैसा बाप तैया बेटा ।
हमारे = सम्बन्धवाचक सर्वनाम = हमारे पिताजी आये थे।