लेखक परिचय-
भारतीय संस्कृति के समर्थक एवं महान मानववादी लेखक हजारी प्रसाद हिवेदी जी का जन्म 1907 ई० में बलिया (उत्तर प्रदेश ) में हुआ था।द्विवेदी जी काशी हिन्दु विश्वविद्यालय, शांति निकेतन विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ विश्वविद्यालय प्रोफेसर पद पर एवं प्रशासनिक सेवा में भी कुछ दिनों तक कार्य किये। भारतीय सांस्कृतिक का आधार लेकर एवं अपने पांडित्य के बदौलत इन्होंने भारतीय हिन्दी साहित्य के भंडार को भरने में पूर्ण योगदान किया।
हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रमुख रचनाएँ हैं-
" अशोक के पफूल" "कल्पलता", "विचार और वितर्क", "करज", "विचार-प्रवाह", " आलोक पर्व", "प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद", "बाणभट्ट की आत्मकथा", "चारूचन्द्र लेख" "पुनर्नवा", "अनामदास का पोथा" (उपन्यास), "सूर साहित्य", "कबीर" "मध्यकालीन बोध का स्वरूप'", "नाथ संप्रदाय" "कालिदास की लालित्य
योजना", "हिन्दी साहित्य का आदिकाल", हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास "संदेश रासक", "पृथ्वीराज रासो" "नाथ-सिद्धों की वानियाँ" "विश्व भारती'" इत्यादि । "आलोक पर्व" भारत सरकार द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार, पद्मभूषण का सम्मान तथा लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा डी० लिट् की उपाधि प्राप्त किये।द्विवेदी जी के काव्यों में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी एवं बाँग्ला भाषा का संगम मिलता है। इन्होंने अपने साहित्य में हिन्दी साहित्य, इतिहास भारतीय संस्कृति, धर्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान एवं मानवतावाद का मणिकंचन संयोग देखा जा सकता है । द्विवेदी जी का निधन 1979 ई० दिल्ली में हो गया।
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4. नाखून क्यों बढ़ते हैं। -हजारी प्रसाद द्विवेदी |
4. नाखून क्यों बढ़ते हैं। -हजारी प्रसाद द्विवेदी
निबन्ध परिचय-
प्रस्तुत निरबंध में निबंधकार की मानवतावादी दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से प्रगट होता है। इस निर्बध को लिखने का लेखक का मुख्य उद्देश्य है सभ्यता संस्कृति की विकास गाथा उजागर करना । मनुष्य के नाखून बढ्ते हैं जो पाशविक वति और संघर्ष चेतना का प्रमाण है तथा नाखून को काटना सींदर्य बोध और सांस्कृतिक चेतना को निरूपित करता है। इस मनोरंजन लेख के माध्यम से नि्ंधकार ने मानव -सत्य को दर्शाले हुए सौदर्यबोध, ऐतिहासिक चेतना एवं सांस्कृतिक आत्मगीरव का भाव जगाने का कार्य किया है ।निबंध का संक्षिप्त रूप-लेखक की छोटी लड़की लेखक से प्रश्न करती है। नाखून क्यों बढ़ते हैं.? लेखक उस समय तो कुछ भी उत्तर नहीं दे पाये । लेकिन लेखक के विचार से हर तीसरे
दिन नाखून बढ़े दिखते हैं। बच्चे यदि कुछ दिनों तक उसे नहीं काटते तो माता-पिता से ौ सुनना पड़ता है। ठीक इसके विपरीत आज से लाखों वर्ष पूर्व के माता-पिता नाखून के कमो बच्चे को डाँटते होंगे। क्योंकि उस युग में नाखून ही अस्त्र थे । लोग अपने उदर पूर्ति के लिए अथवा आत्म रक्षार्थ नख-दन्त का ही प्रयोग करते थे ।
कालक्रम से मानव शरीर में स्थित अस्त्रो की जगह पर पत्थर, डंडे और हड्डियों के हथिया बनाये। दधीचि मुनी की हड्डी से बने " व्रज" नामक हथियार देवराज इन्द्र के पास था, जो सबसे मजबूत और ऐतिहासिक था। मानव और आगे बढ़ा तथा लोहे के अस्त्र-शस्त्र का उपयोग करने लगा। लोहे का हथियार देवता, दानव यक्ष, गन्धर्व आदि किसके पास नहीं थे। देवताओं ने मानव से सहायता प्राप्त कर दानव को हराया, यक्ष, गन्धर्व, सबको हरा दिये । इस प्रकार मानवों ने बाजी मार ली। इतिहास अपनी गति से आगे बढ़ा- बन्दूक तोप, बम, बमवर्षक यान का निर्माण हुआ। नखधर मनुष्य अब एटम बम पर भरसा करके आगे की ओर चल पड़ा। पर उसके नाखन
अब भी बढ़ रहे हैं। अर्थात् अभी भी प्रकृति मनुष्य को उसके शरीर में स्थित अस्त्र से वचित नहीं किया है । लाख वर्ष पूर्व नख-दन्ताबलंबी पशुओं के साथ विचरण करने वाला ही मानंव को मान रहा है।
लेकिन मनुष्य आज बच्चों के लम्बे-लम्बे नाखून को देखकर डॉटते हैं तो कभी नाखून काटने पर डाँटते थे। लेकिन प्रकृति हमारे नाखून को जिलाए जा रही है , बढ़ाती जा रही है और हम काटते जा रहे हैं तो भी वह बढता जाता है। क्या, नाखून को पता नहीं कि हमारी आवश्यकता मनुष्य को नहीं है क्योंकि मनुष्य नाखून से लाखों गुणा घातक हथियार प्राप्त कर चुका है। यदि यह कहूँ कि मनुष्य नाखून काटकर अपनी पाशविक गुण को छोड़ दिया तो यह कहना भी उचित नहीं होगा। क्योंकि मनुष्य की बर्बरता घटी नहीं जिसका उदाहरण हिरोशिमा का हत्याकाण्ड है। लेखक मनुष्य के बढ़े नाखून को देखकर निराश हो जाते हैं क्योंकि ये नाखून भयंकर
पाशविक वृति का जीवंत प्रतीक है । कुछ हजार वर्ष पूर्व नाखून को मनुष्य ने सुकुमार विनोद के लिए उपयोग में लाने लगा ।.
वात्सयायन सूत्र से पता चलता है कि भारतवासी अपने विलास के लिए नाखून को सजाते थे, विविध आकार में बढ़ाते थे। यह कार्य लोगों को अच्छा लगा जबकि यह वृति लोगों के लिए अधोगामनिवृत्ति है । लाखों वर्ष पीछे ले जाने वाली वृति है लेकिन मनुष्य उसे भी उचित समझा । प्राणि विज्ञानियों के मत से मानव-चित्त की भाँति मानव शरीर में बहुत-सी अभाव-जन्य सहज वृतियाँ रह गई हैं जिसके कारण नाखून का बढ़ना, केश का बढ़ना, दाँत का दुबारा निकलना, पलक मारना आदि होते हैं। लेकिन मनुष्य को मान लेना होगा कि नख को बढ़ा लेना पशुत्व का प्रमाण है तथा नाखून को काटना मानवत्व का । मानव पशुता को छोड़ चुका है क्योंकि पशु बनकर
मनुष्य आगे नहीं बढ़ सकता । मनुष्य को अस्त्र बढ़ाने की प्रवृत्ति का त्याग करना होगा क्योंकि अस्त्र बढ़ाने की प्रवृति मनुष्यता की विरोधिनी है । लेखक मानव जाति से प्रश्न कर रहा है कि मनुष्य किस ओर बढ़ रहा है । अस्त्र बढ़ाने की ओर या अस्त्र काटने की ओर नाखून बढ़ते हैं, ये हमारी पशुता की निशानी है यदि अस्त्र-शस्त्र
बढ़ रहे हैं तो यह भी हमें पाशविक वृति की ओर अधोगामिनी बनायेगा ।
15 अगस्त, 1947 को जब अंग्रेज इण्डिपेण्डेन्स की घोषणा कर रहे थे तो हम स्वाधीनता मान. रहे थे । जबकि इण्डिपेण्डेन्स का अर्थ होता है अधीनता का अभाव । लेकिन हमने सहज उस अपने अधीन (स्वाधीनता) मान लिया। यह हमारी दीर्घकालीन संस्कारों का फल है । यह हमारा परम्परा है जो हम सबको अपने-आप में संयोजे है । मैं यह नहीं कहता कि सारी पुरानी चा्ज अच्छी हैं क्योंकि मरे बच्चे को गोद में दबाए रखने वाली "बँदरिया" मनुष्य का आदर्श नहीं बग सकती । यह भी नहीं कह सकता हूँ कि नये-नये अनुसंधान के नशे. में चूर होकर हम अपना ह कुछ खो दें कालिदास ने भी कहा है कि सब पुराने अच्छे नहीं होते. सब नए खराब नहीं होत।
भले लोग दोनों को जाँच कर जो हितकर होता है उसे ग्रहण कर लेते हो ।
मनुष्य में पशु की तरह ही आहार-निद्रा है। इसके बाद भी मनुष्य पशु से भिन्न है क्योंकि मनुष्य में संयम, संवेदना, श्रद्धा, तप, त्याग जैसे गुण भी हैं। जिसे मानव धर्म भी कहते हैं जो किसी जाति का धर्म नहीं मानव मात्र का धर्म है । महाभारत में भी श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निर्वैर भाव, सत्य और अक्रोध को सभी वर्णों के लिए सामान्य धर्म कहते हुए कहा है कि-
एतद्धि विततं श्रेष्ठं सर्वभूतेषु भारत ।
निर्वैरता महाराज सत्यमक्रोध एवं च ।
गौतम ने कहा था कि मनुष्य की मनुष्यता यही है कि सबके दुःख-सुख सहानुभूति के साथ देखता है। आत्मनिर्मित बंधन ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है।मनुष्य को सुख कैसे मिलेगा ? बड़े-बड़े नेता कहते हैं, वस्तुओं की कमी है और मशीन बेठाओ और उत्पादन बढ़ाओ और धन की वृद्धि करो और बाह्य उपकरणों की ताकत बढ़ाओ ।
एक बूढ़ा था उसने कहा- बाहर नहीं, भीतर की ओर देखो। हिंसा को मन से दूर करो, मिथ्या को हटाओ, क्रोध और द्वेष को दूर करो, लोक के लिए कष्ट सही, आराम की बात नहीं बल्कि प्रेम की बात करो। आत्म-तोषण की बात तथा काम करने की बात सोचो । बूढ़े को बात अच्छी नहीं लगी और उसे गोली मार दी गई। अर्थात् आदमी के नाखून बढ़ने की प्रवृत्ति ही हावी हुई।
प्राणिशास्त्रियों का अनुमान है कि मनुष्य के अनावश्यक अंग उड़ जाएँगे, जैसे उसकी पूँछ झड़ गये और मनुष्य में स्थित पशुता का अन्त हुआ। उसी प्रकार मनुष्य कभी मारक अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग बंद कर देगा। मनुष्य की अपनी इच्छा, अपना आदर्श है। वृहत्तर जीवने में अस्त्र-शस्त्रों को बढ़ने देना मनुष्य का तकाजा है। मानव में घृणा पशुत्व माप का द्योतक है और अपने को संयमित रखना दूसरे के भावों का आदर करना मनुष्य का स्वधर्म है। अभ्यास और तप से प्राप्त वस्तुएँ मनुष्य की महिमा को सूचित करती हैं।
मनुष्य की सफलता और चरितार्थता में अंतर बताते हुए लेखक ने कहा है कि मारक अस्त्र-शस्त्रों का संचयन, बाह्य उपकरणों की बाहुलता से सफलता प्राप्त करता है परन्तु मनुष्य की चरितार्थता प्रेम में, मैत्री में, त्याग में तथा सबके प्रति मंगल भाव से देखने में है । नाखूनों का बढ़ना मनुष्ये की उस सहज वृत्ति का परिणाम है, जो जीवन में सफलता ले आना चाहती है, उसको काट देना उस "स्व" निर्धारित आत्म बंधन का फल है जो मनुष्य को चरितार्थता की ओर ले जाती है । कमबख्त नाखून बढ़ते हैं तो बढ़े, मनुष्य उसे बढ़ने नहीं देगा।
बोध और अभ्यास
पाठ के साथ
1. नाखून क्यों बढ़ते हैं ? यह प्रश्न लेखक के आगे कैसे उपस्थित हुआ ?
उत्तर- नाखून क्यों बढ़ते हैं? यह प्रश्न लेखक के आगे लेखक की छोटी पुत्री ने उपस्थित किया।2. बढ़ते नाखूनों द्वारा, प्रकृति मनुष्य को क्या याद दिलाती है ?
उत्तर- बढ़ते नाखूनों द्वारा प्रकृति मनुष्य को याद दिलाता है कि मनुष्य कभी लाख वर्ष पूर्व नख-दन्तावलंबी था। पशुत्व भाव को प्राप्त किये था। नंखों के द्वारा ही प्रतिद्वन्द्वियों को पछाड़ता था। नख कट जाने पर उसको डॉट पड़ता होगा, इत्यादि ।3. लेखक द्वारा नाख्खूनों को अस्त्र के रूप में देखना कहाँ तक संगत है ?
उत्तर- नाखून ही मानव के अस्त्र थे । आज से लाख वर्ष पूर्व जब जंगल में रहता था। अपने पैने नुकीले नख से अन्य जीवों को आहत कर पेट भरता था। अपने नाखून के प्रहार से प्रतिद्वन्द्वियों को पछाड़ता था। इसलिए नाखूनों को अस्त्र के रूप में देखना युक्तिसंगत है।4. मनुष्य बार-बार नाखूनों को क्यों काटता है ?
उत्तर- नाखून मनुष्य का प्राचीनतम हथियार है। जिस समय मनुष्य पशु की भाँति जीवन व्यतीत कर रहा था। आर्ज मनुष्य उस पाशविक वृति को छोड़ चुका है । मानविक गुण आ जाने के कारण पशुता का त्याग करना ही उचित मानता है। इसलिए मनुष्य नाखून को अपना हाथयार नहीं बनाना चाहता है। नाखून बढ़ते हैं इसका बढ़ना मनुष्य के शरीर की सहज वृति हैं । वह बार-बार बढ़ेगा। लेकिन मानव पशुता की ओर अधोगामिनी वृति नहीं अपनायेगा । उसे बार-बार काटता है और काटता रहेगा।5. सुकुमार विनोद के लिए नाखून को उपयोग में लाना मनुष्य ने कैसे शुरू किया ? लेखक ने इस संबंध में क्या बताया है ?
उत्तर- आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व विलासी प्रवृति के मनुष्यां ने नाखून को खूब सजाते कर, संवार कर, उसे विविध आकार-प्रकार देकर काँट-छाँटकर सुन्दर और आकर्षक बनाते थे, जो उनके सुकुमार विनोद के काम में आता था। वात्सयायन काम-सूत्र के आधार पर लेखक ने ठस कला को मनोरंजक बताया है। लेखक ने इस संबंध में यह भी कहा है, कि उस समय लोग अपने नाखून को मम से चिकना करते थे, आलता से रंगते थे। गौड़ देश में लम्बे और दक्षिण के लोग छोटे नाखून रखते थे।नाखून बढ़ाने की प्रवृत्ति अधोगामिनी है। फिर भी हम भारतवासी उसे भी उचित माना ।
6. नख बढ़ाना और उन्हें काटना कैसे मनुष्य की सहजात वृत्तियोँ है ? इनका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर- मानव शरीर में कुछ सहजवृत्तियोाँ होती रहती हैं। जैसे नाखून का बढ़ना, केश का बढ़ना आदि उसी प्रकार नाखून को बढ़ाना और उन्हें काटना भी मनुष्य की सहजात वृत्तियाँ हैं। इसका अभिप्राय यह है कि नाखून को बढ़ाना पशुत्व का प्रमाण और उसका काटना मानत्व का प्रमाण है। वह बढ़ता रहेगा लेकिन हम उसे, काटकर पशुत्व का त्याग और मनुष्यता को ग्रहण करते रहेंगे। क्योंकि पशु बनकर कोई आगे नहीं बढ़ सकता है।7. लेखक क्यों पूछता है कि मनुष्य किस ओर बढ़ रहा है, पशुता की ओर या मनुष्यता की ओर ? स्पष्ट करें।
उत्तर- लेखक पूछता है। माना मेरी छोटी निर्बोध बालिका ने मनुष्य जाति से पूछ रही है कि मनुष्य किस ओर बढ़ रहा. है, पशुता की ओर या मनुष्यता की ओर । मनुष्य का अस्त्र-शस्त्र बढ़ना क्या पशुता की अर नहीं ले जा रहा है। क्या मनुष्य अस्त्र काठने की ओर बढ़ रहा है ? जवाब मिलेगा नहीं। फिर मनुष्य का मानत्व बढ़ना तो है ही नहीं।अर्थात् आज का मनुष्य अस्त्र-शस्त्र को बढ़ाकर पशु की ओर ही अधोगामिनी गति को प्राप्त कर रहा है ।
8. देश की आजादी के लिए प्रयुक्त किन शब्दों की अर्ध मीमांसा लेखक करता है और लेखक के निष्कर्ष क्या है ?
उत्तर- देश की आजादी के लिए प्रयुक्त "इण्डिपेण्डेन्स'" स्वाधीनता दिवस" शब्दों की अर्थ मीमांसा लेखक करता है और लेखक का निष्कर्ष है कि 'इण्डिपेण्डेन्स' का अर्थ अन् अधीनता अर्थात् अधीनता का अभाव होता है लेकिन हम भारतीयों ने उसको सहज भाव में "स्वाधीनता", नाम दे दिया। यह हमारी विशेषता है कि हम 'अन्' को "स्व'" में बदल डाला। जबकि स्वाधीनता के लिए अंग्रेजी शब्द "सेल्फ डिपेण्डेन्स" शब्द का प्रयोग होना चाहिए था।9. लेखक ने किस प्रसंग में कहा है कि बंदरिया मनुष्य का आदर्श नहीं बन सकती ? लेखक का अभिप्राय स्पष्ट करें।
उत्तर-हम भारतीय "स्व" को अपनाये हुए हैं उसे छोड़ना नहीं चाहते तभी तो"इंडिपेंडन्स ' (अनधीनता) को स्वाधीनता, स्वराज, स्वतंत्र, स्वतंत्रता आदि नाम रख लिया।
यह हमारी परम्परा है। यदि यह बात है तो सब पुरानी भी अच्छी नहीं होती और सब नई भी खराब नहीं होता । हमें अपने पुराने के मोह को वांछनीय नहीं मानना चाहिए। क्योंकि मरे बच्चे को गोद में दबाए रहने वाली बंदरिया' मनुष्य का आदर्श नहीं बन सकती । 'लेखक का अभिप्राय है कि हमें पुराने और नये दोनों को परख कर जो हितकर लगे उसे अपना लेना ही मनुष्यता है।
10. "स्वाधीनता" शब्द की सार्थकता लेखक क्या बताता है ?
उत्तर- लेखक ने "स्वाधीनता" शब्द की सार्थकता बताते हुए कहते हैं कि "अनधीनता' (इण्डिपेण्डेन्स) को भारत के लोग "स्वाधीपता" के रूप में सोच लिया यह हमारे दीर्घकालीन\ संस्कारों का फल है। इसीलिए हम "स्व" के बंधन को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है।11. निबंध में लेखक ने किस बूढ़े का जिक्र किया है ? लेखक की दृष्टि में बूढ़े के कथनों की सार्थकता क्या है ?
उत्तर- निबंध में लेखक ने किसी बुढे नेता का जिक्र किया है । सम्भवत: महात्मा गराधा का लक्ष्य करके जिक्र किया गया हो। जब एक ओर बड़े-बड़े नेता कह रहे थे, वस्तुओं को कमी है, मशीन बैठाओ, उत्पादन बढाओ और धन की वृद्धि करो और बाह्य उपकरणों की ताकत बढ़ाओ तो दूसरों और वह वृद्ध नेता कह रहा था बाहर नहीं, भीतर की ओर देखो। हिंसा को मन से दूर करो, मिथ्या को हटाओ, क्रोध और द्वेष को दूर करो, लोक के लिए कष्ट सहो, आराम की बात मत सोचो, प्रेम की बात सोचो, आत्म-तोषण की बात सोचो । प्रेम ही बड़ी चीज है, क्योंकि वह हमारे भीतर है। उच्छृंखलता पशु की प्रवृति है, "स्व" का बंधन मनुष्य का स्वभाव है।वस्तुत: बूढे का कथन ही सार्थक है क्योंकि स्व बंधन से मुक्त होने का तात्पर्य है, मनुष्य को अपने स्वभाव से मुक्त होना। हमारी जो वर्त्तमान में धारणा है कि बाह्य उपकरणों के द्वारा सफलता प्राप्त की जाती है। यह धारणा गलत है हमें अपने-आप (स्व) में परिवर्तन के लिए यदि प्रयत्नशील रहें तो हमारी सफलता स्वाभाविक होगी।
12. मनुष्य की पूँछ की तरह उसके नाखून भी एक दिन झड़ जाएँगे। प्राणिशास्त्रियों के इस अनुमान से लेखक के मन में कैसी आशा जगती है ?
उत्तर- प्राणिशास्त्रियों का अनुमान है कि मनुष्य की पूँछ की तरह उसके नाखून भी एक दिन झड़ जाएँगे। इस अनुमान से लेखक के मन में आशा जगती है कि समय पाकर मानव के. पूँछ झड़ गये। मानव में मानत्व के गुण आने लगे। पाशविक विकार दूर हुए । ठीक उसी प्रकार पशुता के प्रतीक यह बढ़ने वाला नाखून भी जब झड़ जाएँगे तब मानव में शेष पाशविक वृति भी समाप्त हो जायेगी और मनुष्य में मानविक वृति का संचार होने लगेगा ।13. "सफलता" और "चरितार्थता" शब्दों में लेखक अर्थ की भिन्नता किस प्रकार प्रतिपादित करता है ?
उत्तर- मनुष्य की सफलता और "चरितार्थता" शब्दों में लेखक अर्थ की भिन्नता प्रतिपादित करते हुए कहा है कि "सफलता मारक अस्त्र-शस्त्रों के संचयन से, बाह्य उपकरणों को बाहुलता से सफलता प्राप्त किया जाता है जो आडंबर मात्र है । परन्तु मनुष्य की चरितार्थता-प्रेम में, मैत्री में, त्याग में तथा अपने को सबके मंगल के लिए निःशेष भाव से दे देने में है। नाखूनों का बढ़ना मनुष्य की सहजवृति का परिणाम है जो जीवन में सफलता ले आना चाहती है, उसको काट देना उस "स्व" निर्धारित आत्मबंधन का फल है जो मनुष्य को "चरितार्थता"की ओर ले जाती है।
14 व्याख्या करें-
(क) काट दीजिए, वे चुपचाप दंड स्वीकार कर लेंगे, पर निर्लज्ज अपराधी की भौँति फिर छुटते ही सेंघ पर हाजिर ।
उत्तर- प्रस्तुत पंक्ति हमारे पाठ्य पुस्तक "गोधूली" भाग-2 के "नाखून क्यों बढते हैं" शीर्षक निबंध से उद्धृत है। यह निबंध "हजारी प्रसाद द्विवेदी" जी की रचना है। इस पक्ति में नाखून के बारे में कहा गया है कि नाखून बढ़ते हैं हम उसे काटते हैं। हमारे दण्ड को सहज भाव से चुपचाप सह लेता है लेकिन पुन: तीसरे दिन ही निर्लज्जि अपराधी की तरह फिर सेंध पर हाजिर हो जाते। अर्थात् पुनः- पुनः दंड को स्वीकार कर लेना उनका सहज भाव है।(ख) मैं मनुष्य के नाखून की ओर देखता हूँ तो कभी-कभी निराश हो जाता हूँ।
उत्तर- प्रस्तुत पक्ति हमारे पाठ्य पुस्तक "गोधूली" भाग-2 के "नाखून क्यों बढ़ते हैं" शीर्षक निबंध से उद्धृत है जिसके लेखक "हजारी प्रसाद द्विवेदी" जी हैं।मनुष्य की भयंकर पाशवी वृति के जीवंत प्रतीक नाखून है। लेखक जब कभी भी नाखून
की ओर देखता है तो कभी-कभी निराशा आ जाती है। क्योंकि यह नाखून पाशविक प्रवृत्ति का
बढ़ावा देने वाला है क्या हम पुन: नखावलंबी तो नहीं बन जाएँगे। यही सोचकर लेखक निराश
हो जाते हैं।
( ग) कमब्ख़त नाखून बदते हैं तो बढ़ें, मनुम्य उन्हें बदने नहीं देगा।
उत्तर- प्रस्तुत पव्ति हमारे पाद्य पुस्तक "गोधूली" भाग 2 के "नाखून क्यों चढ़ते हैं।शीर्षक निबंध से ढद्धत है जिसके लेखक "हजारी प्रसाद द्रिवेरी" जी हैं। निबंध की समाप्ती काल में लेखक इस निर्णय पर पहुंचे जाता है कि नाथन का बढना मान शरीर के अवशेष स्वरूप सहजवृति है जो चहता है तो उसे काढ दिया जाता है पुना चह बह जाता है मनुष्य फिर उसे काटता है। नाखून का बहना और काउनी होता ही रहेगा । बढ़े चह कितनाबढेगा। चह जितना मढ़ेगा मनुषध्य ठसे उत्तना काटता रहेगा। क्योकि गवुष्य पुनः भाशविक प्रवृति
को नहीं अपनाना चाहता है ।
15. लेखक की दृष्टि में हमारी संस्कृति की बड़ी भारी विशेषता वया है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- लेखक हजारी प्रसाद ह्विवेरी जी की दु्टि में हमारी संसखकृति की बड़ी भारी विशेषता है कि भारतीय चित्र जो आज "अनधीनता" को रूप में न सोचकर स्वाधीनता के रूप में सोचाता है, चह हमारे दीर्घकालीन संस्कारों का फल है वह संस्कार "रख" के बंधन को आसानी से छोड़ नहीं सकता। अपने-आप पर अपने-आप के द्वारा लगाया हआ वंधन हमारी संस्कृति की बड़ी भारी विशेषता है।16. "नाखून क्यों बढ़ते हैं" का सारांश प्रस्तुत करें ।
उत्तर- पाठ का सारांश रूप (संशिष्त रूप ) दिये गये हैं। देखेंपाठ के आस-पास
1. अपने शिक्षक से देवराज इंद्र और दधीचि मुनी की कथा मालूम करें ।
उत्तर- देव दानव का युद्ध आरम्भ हुआ देवता लोग हारने लगे देवताओं के पास कोई ठोस हथियार नहीं थे । दानवों को हराने के लिए उन्हें ऐसा हथियार चाहिए था जो अत्यधिक ठोस हो । मुनी दधीचि एक महान तपस्वी थे दीघंकालीन तप के प्रभाव से उतकी हड्डी मजबूत हो गई थी । देवताओं ने विचार कर देवराज इन्द्र को मुनी दधीचि के पास अस्थि दान माँगने के लिए भेजा । मुनी ने अस्थि का दान दिया उन्हीं की हड्ड़ी से देवराज इन्द्र का सबसे ठोस हथियार "वज्र" बना। वज्र के प्रभाव से देवता लोग विजयी हुए ।2. लेखक ने कालिदास के जिस कथन का हचाला दिया है उसका मूल रूप संस्कृरत के शिक्षकों से मालूम कर याद कर लें तथा उसके अर्थ को ध्यान में रखते हुए एक स्वतंत्र टिप्पणी लिखकर कक्षा में उसका पाठ करें।
उत्तर- लेखक ने कालिदास के माध्यम से यह कहलाने का प्रयास किया है पुरानी या नई का विचार त्याग कर मानव को अच्छी-बुरी बातों को परखकर हित के योग्य को स्वीकारना ही अच्छे मानव का लक्षण है वस्तुतः मनुष्य की यह हमारी पुरानी परम्परा है यह हमारी संस्कृति है चाहे हमारी वह परम्परा हमारे लिए अहितकर ही हो । यदि हम अच्छा मान लेते हैं तो हमारी भूल है। हमें अंधविश्वास से दूर हटकर विवेकपूर्ण विचार करना होगा । उसी प्रकार नवीनता के मोह में पड़कर अहितकर को हितकर समझ लेना या नवीनता के प्रति देष ईष्ष्याचिश उसका परित्याग करना भी हमारे लिए दु:ख का कारण बन सकता है ।3. समय १/य पर भारत में बाहर से आने वाली जातियों के नाम औौर समय अपने इतिहास के शिक्षक से मालूम करें।
उत्तर- समय-समय पर भारत में बाहर से अनेक जातियां का आक्रमण या आगमन होता रहा है जिसमें कुछ प्रमुख हैं-आर्य, हून, यहूदी, फ्रांसीसी, मुसलगान, इरानी, अग्रेज इल्यादि |भाषा की बात
1. निम्नलिखिंत शब्दों के वचन बदलें-
उत्तर- अल्पज्ञ = अल्पज्ञों । प्रतिद्वंहियों प्रतिद्वंद्वी । हड्डी अवशेष अवशेषों । वृत्तियोां - वृत्ति उत्तराधिकार उत्तराधिकारों बैंदरिया हड्डियाँ। मुनि -मुनियों। बैदरियों ।हिन्दी-X
2. वाक्य प्रयोग द्वारा निम्नलिखिंत शब्दों के लिंग-निर्णय करें ।
उत्तर- बंदूक = बंदूक पुरानी हो गई । घाट = घाट विगड़ गये । सतह = सतह ऊँची-नीची है। अनुसंधित्सा = अनुसंघत्सा खत्म हो गई। भंडार = भंडार पूरा है । खोज = खोज हुई । अंग = शरीर का अंग काटा गया। वस्तु = यह वस्तु वहाँ देखा गया।3. निम्नलिखित वाक्यों में क्रिया की काल रचना स्पष्ट करें-
(क) उन दिनों उसे जूझना पड़ता था। उत्तर-लाखों चर्ध पूर्व ।(ख) मनुष्य और आगे बढ़ा। उत्तर-लोह युग ।
(ग) यह सबको मालूम है। उत्तर- बसवा सदी ।
(घ) वह तो बढ़ती ही जा रही है। उत्तर- वर्तमान काल ।।
(ङ्) मनुष्य उन्हें बढ़ने नहीं देगा । उत्तर- भविष्यत काल ।
4. "अस्त्र-शस्त्रों का बढ़ने देना मनुष्य की अपनी इच्छा की निशानी है और उनकी बाढ़ को रोकना मनुष्यत्व का तकाजा है ।" इस वाक्य में आए विभक्ति चिह्नाँ के प्रकार बताएँ ।
उत्तर- अस्त्र-शस्त्रों का = सम्बन्ध कारक । मनुष्य की = सम्बन्ध कारक । इच्छा को सम्वन्ध कारक । उन की = सम्बन्ध कारक । बाढ़ को = कर्म कारक । मनुष्यत्व का = सम्बन्ध कारक ।5. स्वतंत्रता, स्वराज्य जैसे शब्दों की तरह "स्व" लगाकर पाँच शब्द बनाइए ।
उत्तर- स्वाधीनता, स्वरूप, स्वेच्छा, स्वदेश, स्वाभिमान ।6. निम्नलिखित के विलोम शब्द लिखें-
उत्तर- पशुता = मनुष्यता । घृणा = प्रेम । अभ्यास = अनुभ्यास । मारणास्त्र = जीवनास्त्र (जीवास्त्र) । ग्रहण = त्याग । मूढ़ = बुद्द्धिमान अनुवर्त्तिता = परिवर्त्तिता । सत्याचरण = असत्याचरण ।शब्द निधि :
अल्पज्ञ = कम जाननेवाला । दयनीय = द्या करने योग्य । बेहया = बिना हया के, नि्लज्ज, बेशर्म । प्रतिद्वंद्वी = विरोधी । नखधर = नख को धारण करनेवाला, नाखून वाला । दंतावलंबी = दाँत का सहारा लेकर जीने वाला । विचरण = घूमना, भटकना। तत:किम् = फिर क्या, इसके बाद क्या। असह्य = न सह सकने योग्य। पाशवी वृत्ति = पशु जैसा स्वभाव एवं आचरण । वर्तुलाकार = घुमावदार, गोलाकार । दंतुल = दाँत वाला जिसके दाँत बाहर निकले हों। दाक्षिणात्य = दंक्षिण का ( दक्षिण भारतीय) । अधोगामिनी %= नीचे की ओर जानेवाली । सहजात वृत्ति = जन्म के साथ पैदा होने वाली वृत्ति या स्वभाव । वाक् = वाणी, भाषा । निर्वाध = नासमझ, नादान । अनुवर्तिता = पीछे-पीछे चलना। अरक्षित = जो रक्षित न हो, खुला। अनुसंधत्सा = अनुसंधान की प्रवलइच्छा । सरबस = सर्वस्व, सबकुछ । पूर्वसंचित = पहले से इकट्ठा या जमा किया हुआ । समवेदना दूसरे के दुख को महसूस करना। उदुभावित = प्रकट की गयी, उत्पन्न की गयी। असत्याचरण = असत्य आचरण, लोकविरुद्ध आचरण । निर्वेर = बिना वैर-विरोध के । उत्स = स्रोत, उद्गम, मूल । आत्मतोषण = अपने को संतुष्ट करना, अपने को समझाना । चरितार्थता = सार्थकता । नि:शेष = जिसका शेष भी न बचे, सम्पूर्ण। तकाजा = मॉँग।