लेखक परिचय-
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का जन्म 2 अक्टूबर, 1869 ई० में पोरबंदर, गुजरात में हुआ था। इनका पूरा नाम मोहनदास करमचंद गाँधी था। पिता का नाम करमचंद गाँधी और माता का नाम पुतलीबाई था। प्रारंभिक पढ़ाई पोरबंदर में हुई। 1883 में उनका विवाह कस्तुरबा से हुआ । 1888 में लंदन वकालत पढ़ने गये। 1893-1914 तक दक्षिण अप्रीका में रहकर अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसात्मक आंदोलन प्रारम्भ किया था। 1915 में भारत आकर भारतीय स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े। अहिंसा और सत्याग्रह को अपना हथियार बनाकर अंग्रेज से लड़ते रहे । कई बार उनको जेल भी जाना पड़ा। अन्ततः 15 अगस्त, 1947 को गाँधीजी के नेतृत् में आजादी मिली। 1948 के 30 जनवरी को एक सिरफिरे के द्वारा उनकी हत्या कर दी गई । कार्यगाँधीजी ने अछूतोद्धार काम किया, सर्वोदय का कार्यक्रम चलाया, स्वदेशी का ना दिया, ऊँच-नीच का भेदभाव, जाति-धर्म विभेदक भाव को मिटाने का प्रयास किया।
गाँधीजी को रवीन्द्रनाथ टैगोर ने "महात्मा" कहा, सम्पूर्ण राष्ट्र "बापू" और "राष्ट्रपिता कहकर उनकी याद कंरता है।
गाँधीजी को रवीन्द्रनाथ टैगोर ने "महात्मा" कहा, सम्पूर्ण राष्ट्र "बापू" और "राष्ट्रपिता कहकर उनकी याद कंरता है।
रचना- "हिंद स्वराज", "सत्य के साथ मेरे प्रयोग" आदि पुस्तकें गाँधीजी ने लिखा
"हरिजन" "यंग इंडिया आदि पत्रिकाओं का भी सम्पादन करवाया । उन्होंने शिक्षा, संस्कृति राजनीति, सामाजिक एवं आर्थिक पक्षों में खूब लिखा । सम्पूर्ण राष्ट्र प्रतिवर्ष 2 अक्टूबर को "गजयन्ती"' तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अहिंसा दिवस के रूप में मनाता है।
प्रश्न सूचि
- लेखक परिचय-
- 12. शिक्षा और संस्कृति - महात्मा गाँधी
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बोध और अभ्यास
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पाठ के साथ
- 1. गाँधीजी बढ़िया शिक्षा किसे कहते हैं ?
- 2. इंद्रियों का बुद्धिपूर्वक ठपयोग सीखना क्यों जरूरी है ?
- 3. शिक्षा का अभिप्राय गाँधीजी क्या मानते हैं ?
- 4: मस्तिष्क और आत्मा का ठच्चतम विकास कैसे संभव है ?
- 5. गाँधीजी कताई और घुनाई जैसे ग्रामोद्योगों के द्वारा सामाजिक क्रॉंति कैसे संभव मानते हैं।
- 6. शिक्षा का ध्येय गाँधीजी क्या मानते थे और क्यों ?
- 7. गाँधीजी देशी भाषाओं में बड़े पैमाने पर अनुवाद कार्य क्यों आवश्यक मानते थे ?
- 8. दूसरी संस्कृति से पहले अपनी संस्कृति की गहरी समझ क्यों जरूरी है ?
- 9. अपनी संस्कृति और मातृभाषा की बुनियाद पर दूसरी संस्कृतियों और भाषाओं से सम्पर्क क्यों बनाया जाना चाहिए? गाँघीजी की राय स्पष्ट कीजिए ।
- 10. गाँधीजी किस तरह के सामंजस्य को भारत के लिए बेहतर मानते हैं और क्यों ?
- ll. आशय स्पष्ट करें-
-
पाठ के साथ
- भाषा की बात
- शब्द निधि :
12. शिक्षा और संस्कृति - महात्मा गाँधी
शिक्षा और संस्कृति साराश-
प्रस्तुत लेख गाँधीजी द्वारा सम्पादित "इरिजन" और "यंग इंडिया" नामक पात्रिका का एक श्रेष्ठ लेख है। जिसमें शिक्षा, धर्म, भाषा और संस्कृति के पक्ष में उनका अपना विचार प्रस्तुत किया गया है जो मनुष्य के लिए सदैव अनुकरणीय है। लेख का सक्षेप अहिंसक प्रतिरोध सबसे उदात्त और बढ़िया शिक्षा है जिसका ज्ञान बच्चा को अक्षर ज्ञान से पूर्व होनी चाहिए। बालकों में आत्मा, सत्य और प्रेम क्या है तथा आत्मा ें घ्या-क्या शक्त छुपी है इन संबों को जानना शिक्षा का अंग होना चाहिए। इससे बच्चे अपन जीवन में घृणा को प्रेम में, असत्य को सत्य में और हिंसा को अहिंसा में बदलकर सच्च मानव कहला सकते हैं। प्रेम, सत्य और अहिंसा रूपी हथियार से मनुष्य सम्पूर्ण मानव जगत पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर सकता है।
बच्चों के द्वारा शारीरिक इन्द्रियों का ठीक-ठीक उपयोग बद्धिबल से करना ही बुद्धि की सच्ची शिक्षाहै। शारीरिक शिक्षा के साथ-साथ आध्यात्मिक शिक्षा से मस्तिष्क का सर्वागीण विकास होता है। शिक्षा से मेरा अभिप्राय यह है कि बच्चे और मनुष्य के शरीर, बुद्धि और आत्मा के सभी गुणों को प्रकट किया जाय । शिक्षा का न अन्त है न आदि ही । इसलिए मैं बच्चे की-शिक्षा का प्रारम्भ इस तरह करूँगा कि उसे कोई उपयोगी दस्तकारी सिखाई जाए और जिस क्षण से वह तालीम शुरू करें उसी क्षण उसे उत्पादन के काम करने योग्य बना दिया जाय । बच्चों में दस्तकारी यांत्रिक ढंग से नहीं बल्कि वैज्ञानिक ढंग से सिखानी पड़ेगी। ये जारी शिक्षा किसी दस्तकारी या
उद्योग के द्वारा दी जाय जिससे उनके मस्तिष्क और आत्मा का उच्चतम विकास संभव होगा । बच्चों की प्रारंभिक शिक्षा में सफाई, तन्दु घर पर माता-पिता को मदद देने वगैरह के मूल सिद्धान्त शामिल हो । कताई और धुनाई जैसे ग्रामोद्योग द्वारा प्राथुमिक शिक्षा देने की मेरी योजना में कल्पना यह है कि यह एक ऐसी शांत सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत बने, जिसमें अत्यंत दूरगामी परिणाम भरे हुए हों। इससे नगर और ग्राम के संबंधों का एक एक स्वास्थ्यप्रद नैतिक आधार प्राप्त होगा और समाज की मौजूदा आरक्षित अवस्था और वर्गों के परस्पर विषाक्त संबंधों में बड़ी बुराइयों को दूर करने में सहायता मिलेगी । इससे हमारे देहातों में बढ़ने वाला हास रूक जायेगा तथा एक दिन ऐसी
न्यायपूर्ण व्यवस्था की बुनियाद पड़ेगी, जिसमें गरीब-अमीर का अप्राकृतिक भेद न हो और हर एक के लिए गुजर के लायक कमाई और स्वतंत्रता के अधिकार का आश्वासन हो और यह सब किसी भयंकर और रक्तरंजित वर्ग युद्ध अथवा बहुत भारी पूँजी के व्यय के बिना भी हो जाएगा। मेरी योजना में विदेशों से मँगाई हुई मशीनरी या वैज्ञानिक और यांत्रिक दक्षता पर भी लाचार होकर निर्भर करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। बल्कि जनसाधारण के भाग्य का निपटारा स्वयं उन्हीं के हाथ में रहेगा।
स्वतंत्र भारत में शिक्षा का लक्ष्य होगा चरित्र-निर्माण । मैं साहस, बल, सदाचार और बड़े लक्ष्य के लिए काम करने में आत्मोत्सर्ग की शक्ति का विकास कराने की कोशिश करूँगा। जो साक्षरता से ज्यादा महत्वपूर्ण है, किताबी ज्ञान तो उस बड़े उद्देश्य का एक साधन मात्र है मेरा ख्याल है कि अगर व्यक्ति चरित्र-निर्माण करने में सफल हो जाएँगे तो समाज अपना काम आप सँभाल लेगा मैं चाहता हूँ कि अंग्रेजी या अन्य देशों की भाषाओं में जो ज्ञानं-भंडार पड़ा है उसे राष्ट्र अपनी भाषा के द्वारा प्राप्त करें। इसके लिए हमें विद्यार्थियों का एक अलग वर्ग रखना होगा जो संसार की भिन्न-भिन्न भाषाओं में से सीखने की ठत्तम बात जान ले और उनके अनुवाद देशी भाषाओं में करके देता रहे ।
कूप मंडूप, बनना या अपने चारों और दीवार- खड़ो करना भेद विचार नहीं, मगर मेरा नम्रतापूर्वक यह कथन जरूर है कि दूसरी संस्कृतियों को समझना और कद्र करना स्वयं अपनी संस्कृति की कद्र होने और उसे हजम कर लेने के बाद होनी चाहिए, पहले हरगिज नहीं। मेरे मत से कोई भी संस्कृति इतने रत्न-भंडार से भरी नहीं, जितनी हमारी अपनी संस्कृति । हमने उसे जाना नहीं है। हमें तो उसके अध्ययन को तुच्छ मानना और उसका मूल्य कम करना सिंखाया गया है।
हमने अपनी संस्कृति के अनुकूल जीवन बिताना छोड़् दिया है। उसका ज्ञान हो मगर उस पर अमल न किया जाये तो वह मसाले में रखी लाश जैसी है, जो दिखने में सुन्दर भले हो लेकिन उससे कोई प्रेरणा या पवित्रता प्राप्त नहीं होती। हमारा धर्म यदि अपनी संस्कृति को हृदयाकित करने और उसके अनुकूल चलने की प्रेरणा देता है तो वूसरी संस्कृतियों को तुच्छ समझने यां उसकी उपेक्षा करना भी निषेध बताता है। क्योंकि दूसरी संस्कृति को बहिष्कार कर कोई भी संस्कृति जिन्दा नईी रह सकती ।
भारत में शुद्ध आर्य संस्कृति जैसी कोई चीज मौजूद नहीं है। आर्य लोग भारत के रहने वा्व थे या जयरन यहाँ घुसे थे इससे मुझे बहुत दिलचस्पी नहीं है। लेकिन इस बात से दिलचस्यी है। कि मेरे पूर्वज एक-दूसरे के साथ बड़ी आजादी से मिल गये और मौजूदा पीढ़ी वाले हमलोग ठस मिलाबट की ही उपज है।
मैं चाहता हूँ कि सब देशों की संस्कृति की हवा हमारे चारों ओर स्वतंत्रतापूर्वक बहे । लेकिन यह नहीं चाहता कि उनमें से किसी के झोंके में हम उड़ जाएँ । मैं चाहूँगा कि साहित्य में रुचि रखने वाले हमारे युवा स्त्री-पुरुष जितना चाहे अंग्रेजी या संसार की अन्य भाषाएँ सीखें, फिर उनसे यह आशा रखूँगा कि वे अपनी विद्वता का लाभ भारत और संसार को उसी तरह दें जैसे-बोस, राय और कविवर दे रहे हैं लेकिन मैं यह नहीं चाहूँगा कि एक भी भारतवासी अपनी मातृभाषा को भूल जाएँ, उसकी उपेक्षा करें, उस पर शर्मिन्दा हों या यह अनुभव करें कि वह अपनी खुद की देशी भाषा में विचार नहीं कर सकता या अपने उत्तम विचार प्रकट नहीं कर सकता । मेरा धर्म कैदखाने का, धर्म नहीं है।
इस प्रकार की शिक्षा योजना से गाधीजी सामाजिक क्रांति संभव मानते हैं।
भी जान पाएँगे।
हृदयांकित = हृदय में अँकित = तत्पुरुष समास ।
सर्वांगीण = सर्व अंगों से = तत्पुरुष ।
अविभाज्य = न विभाज्य है जो = नञ् समस ।
भोजन शास्त्र = भोजन का शास्त्र = तत्पुरुष समास ।।
उत्तराद्ध = उत्तर का आधा = तत्पुरुष समास ।
रक्तरंजित = रक्त से रंजित = तत्पुरुष समास ।।
कूपमडूक =कूप का मडूक = तत्पुरुष समास ।
अग्रदूत = दूरतों अग्र = तत्पुरुष समास ।
एकांगी = एक अंग वाली = कर्मधारय.।
कूप मंडूप, बनना या अपने चारों और दीवार- खड़ो करना भेद विचार नहीं, मगर मेरा नम्रतापूर्वक यह कथन जरूर है कि दूसरी संस्कृतियों को समझना और कद्र करना स्वयं अपनी संस्कृति की कद्र होने और उसे हजम कर लेने के बाद होनी चाहिए, पहले हरगिज नहीं। मेरे मत से कोई भी संस्कृति इतने रत्न-भंडार से भरी नहीं, जितनी हमारी अपनी संस्कृति । हमने उसे जाना नहीं है। हमें तो उसके अध्ययन को तुच्छ मानना और उसका मूल्य कम करना सिंखाया गया है।
हमने अपनी संस्कृति के अनुकूल जीवन बिताना छोड़् दिया है। उसका ज्ञान हो मगर उस पर अमल न किया जाये तो वह मसाले में रखी लाश जैसी है, जो दिखने में सुन्दर भले हो लेकिन उससे कोई प्रेरणा या पवित्रता प्राप्त नहीं होती। हमारा धर्म यदि अपनी संस्कृति को हृदयाकित करने और उसके अनुकूल चलने की प्रेरणा देता है तो वूसरी संस्कृतियों को तुच्छ समझने यां उसकी उपेक्षा करना भी निषेध बताता है। क्योंकि दूसरी संस्कृति को बहिष्कार कर कोई भी संस्कृति जिन्दा नईी रह सकती ।
भारत में शुद्ध आर्य संस्कृति जैसी कोई चीज मौजूद नहीं है। आर्य लोग भारत के रहने वा्व थे या जयरन यहाँ घुसे थे इससे मुझे बहुत दिलचस्पी नहीं है। लेकिन इस बात से दिलचस्यी है। कि मेरे पूर्वज एक-दूसरे के साथ बड़ी आजादी से मिल गये और मौजूदा पीढ़ी वाले हमलोग ठस मिलाबट की ही उपज है।
मैं चाहता हूँ कि सब देशों की संस्कृति की हवा हमारे चारों ओर स्वतंत्रतापूर्वक बहे । लेकिन यह नहीं चाहता कि उनमें से किसी के झोंके में हम उड़ जाएँ । मैं चाहूँगा कि साहित्य में रुचि रखने वाले हमारे युवा स्त्री-पुरुष जितना चाहे अंग्रेजी या संसार की अन्य भाषाएँ सीखें, फिर उनसे यह आशा रखूँगा कि वे अपनी विद्वता का लाभ भारत और संसार को उसी तरह दें जैसे-बोस, राय और कविवर दे रहे हैं लेकिन मैं यह नहीं चाहूँगा कि एक भी भारतवासी अपनी मातृभाषा को भूल जाएँ, उसकी उपेक्षा करें, उस पर शर्मिन्दा हों या यह अनुभव करें कि वह अपनी खुद की देशी भाषा में विचार नहीं कर सकता या अपने उत्तम विचार प्रकट नहीं कर सकता । मेरा धर्म कैदखाने का, धर्म नहीं है।
भारतीय संस्कृति उन भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के सामंजस्य का प्रतीक है जिनके हिन्दुस्तान मेंपैर जम गए हैं, जिनका भारतीय जीवन पर प्रभाव पड़ चुका है और जो स्वयं भी भारतीय जीवनसे प्रभाधित हुए हैं। यह सामंजस्य कुदरती तौर पर स्वदेशी ढंग का होगा, जिसमें प्रत्येक संस्कृति के लिए अपना उचित स्थान सुरक्षित होगा । वह अमरीकी ढंग का सामंजस्य नहीं होगा जिसमें एक प्रमुख संस्कृति बाकी संस्कृतियों को हजम कर लेती है और जिसका लक्ष्य मेल की तरफ नहीं बल्कि कृत्रिम और जबरदस्ती की एकता की ओर है ।
बोध और अभ्यास
पाठ के साथ
1. गाँधीजी बढ़िया शिक्षा किसे कहते हैं ?
उत्तर- गाँधीजी. ने बढ़िया शिक्षा अहिंसक प्रतिरोध की शिक्षा को कहते हैं।2. इंद्रियों का बुद्धिपूर्वक ठपयोग सीखना क्यों जरूरी है ?
उत्तर- इंद्रियों का बुद्धिपूर्वक उपयोग सीखना इसलिए जरूरी है कि इंद्रियों का बुद्धिपूर्वक उपयोग उसकी बुद्धि के विकास का जल्द-से-जल्द और उत्तम तरीका है।3. शिक्षा का अभिप्राय गाँधीजी क्या मानते हैं ?
उत्तर- गाँधीजी शिक्षा का अभिप्राय मानते हैं कि वच्चे के शरीर, बुद्धि और आत्मा के सभी गुणों को प्रकट किया जाय ।4: मस्तिष्क और आत्मा का ठच्चतम विकास कैसे संभव है ?
उत्तर- जब बच्चों को कोई दस्तकारी सिखाई जाए और जिस क्षण से वह तालीम शुरू करें ठसी क्षण ठसे उत्पादन का काम करने योग्य बना दिया जाए ये सारी शिक्षा दस्तकारा या उद्योग के द्वारा दी जाए तो उससे उनके मस्तिष्क और आत्मा का उच्चतम विकास सम्भव5. गाँधीजी कताई और घुनाई जैसे ग्रामोद्योगों के द्वारा सामाजिक क्रॉंति कैसे संभव मानते हैं।
उत्तर- कताई और धुनाई जैसे ग्रामोद्योगों द्वारा प्राथमिक शिक्षा से नगर और ग्राम के संबंधा का एक स्वास्थ्यप्रद नैतिक आधार प्राप्त होगा और समाज की मौजूदा आरक्षित अवस्था और वर्गा के परस्पर विषाक्त सम्बन्धों में बड़ी बुराइयाँ को दूर करने में सहायता मिलेगी । साथ-साथ गाव में बढ़ने वाला हास भी रूकेगा।इस प्रकार की शिक्षा योजना से गाधीजी सामाजिक क्रांति संभव मानते हैं।
6. शिक्षा का ध्येय गाँधीजी क्या मानते थे और क्यों ?
उत्तर- शिक्षा का ध्येय गाँधीजी चरित्र-निर्माण मानते थे क्योंकि जब व्यक्ति चरित्र-निर्माण करने में सफल हो जायेगा तो समाज अपना काम आप सँभाल लेगा। इस प्रकार जिन व्यक्तियों का विकास हो जायेगा उनके हाथों में समाज के संगठन का काम सौंपना चाहते थे।7. गाँधीजी देशी भाषाओं में बड़े पैमाने पर अनुवाद कार्य क्यों आवश्यक मानते थे ?
उत्तर- अन्य देशों की भाषा में जो ज्ञान भंडार पडा है। उसे देशी भाषाओं में बड़े पैमाने पर अनुवाद कार्य करके ही जाना जा सकता है। इसलिए देशी भाषाओं में बड़े पैमाने पर अनुवाद कार्य आवश्यक मानते थे।8. दूसरी संस्कृति से पहले अपनी संस्कृति की गहरी समझ क्यों जरूरी है ?
उत्तर- दूसरी संस्कृति से पहले अपनी संस्कृति की गहरी समझ जरूरी है क्योंकि अपनी सस्कृति का न समझकर अन्य संस्कृति को समझना या उसका अनुकरण करना आत्महत्या के समान है।9. अपनी संस्कृति और मातृभाषा की बुनियाद पर दूसरी संस्कृतियों और भाषाओं से सम्पर्क क्यों बनाया जाना चाहिए? गाँघीजी की राय स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर- अपनी संस्कृति और मातृभाषा की बुनियाद पर दूसरी संस्कृतियों और भाषाओं से संपर्क बनाना चाहिए। इसमें गाँधीजी की राय है कि विभिन्न देशों की संस्कृति को हम जानें लेकिन उसके पहले अपनी संस्कृतियों को समझे क्योंकि अपनी संस्कृति की अवहेलना करके दूसरों की संस्कृति का आचरण.आत्महत्या के बराबर हे। उसी प्रकार दूसरों की भाषा से सम्पिर्क करना भी निरर्थक होगा। उसके पहले हमें अपनी भाषा को हृदयाकित करना होगा। अगर हम अपनी मातृभाषा में विभिन्न देशों की भाषाओं की अच्छी-अच्छी बातों का अनुवाद करते हैं तो हम भारतवासी अधिक-से-अधिक लाभान्वित होंगे और अधिक-से-अधिक देशों की भिन्न-भिन्न संस्कृतियों कोभी जान पाएँगे।
10. गाँधीजी किस तरह के सामंजस्य को भारत के लिए बेहतर मानते हैं और क्यों ?
उत्तर- जो विभिन्न संस्कृतियाँ हिन्दुस्तान में पैर जमा चुकी है। जिनका भारतीय जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ चुका है और जो स्वयं भी भारतीय संस्कृति से प्रभावित हो चुके हैं वह सामंजस्य भारत के लिए बेहतर होगा क्योंकि इस प्रकार के सामजस्य कुदरती तौर पर स्वदेशी ढंग का होगा। जिसमें प्रत्येक संस्कृति के लिए अपना उचित स्थान सुरक्षित होगा।ll. आशय स्पष्ट करें-
(क) मैं चाहता हूँ कि सारी शिक्षा किसी दस्तकारी या उद्योगों के द्वारा दी जाए।
उत्तर- गाँधीजी की इच्छा है कि बच्वों में दूस्तकारी शिक्षा यांत्रिक ढंग से नहीं बल्कि वैज्ञानिक ढंग से सिखानी पड़ेगी। ये सारी शिक्षा किसी दस्तकारी या उद्योगों के द्वारा दी जायं ।(ख) इस समय भारत में शुद्ध आये संस्कृति जैंसी कोई चीज मौजूद नहीं है ।
उत्तर- भारत की संस्कृति आर्य संस्कृति जो शुद्ध संस्कृति है। यह संस्कृति हमारे पूर्वजों का देन है। उनके समन्बय नीति का परिणाम है। अतः उससे बढ़कर भारतीयों के लिए कोई चीज भारत में नहीं है।(ग) मेरा घर्म कैदखाने का घर्म नहीं है।
उत्तर- भारतीय घर्म केदखाने का धर्म नहीं है अर्थात् इस धर्म में कोई बन्धन नहीं, सबत्को स्वाधीन होने तथा स्वेच्छा भाव से दूसरे ध्म का अवलोकन करने का कत्त्तव्य प्राप्त है। लेकिन किसी अन्य धर्म-संस्कृति के अध्ययन में अपना धर्म न भूल । हमारा घर्म दूसरे धर्म को भी येथोचित स्थान पर बैठाती है बाँधती नहीं ।भाषा की बात
1, निम्नलिखित के विग्रह करते हुए समास के प्रकार बताए-
बुद्धिपूर्वक = बुद्धि से युक्त = तत्पुरुष समास ।हृदयांकित = हृदय में अँकित = तत्पुरुष समास ।
सर्वांगीण = सर्व अंगों से = तत्पुरुष ।
अविभाज्य = न विभाज्य है जो = नञ् समस ।
भोजन शास्त्र = भोजन का शास्त्र = तत्पुरुष समास ।।
उत्तराद्ध = उत्तर का आधा = तत्पुरुष समास ।
रक्तरंजित = रक्त से रंजित = तत्पुरुष समास ।।
कूपमडूक =कूप का मडूक = तत्पुरुष समास ।
अग्रदूत = दूरतों अग्र = तत्पुरुष समास ।
एकांगी = एक अंग वाली = कर्मधारय.।
2. निम्नलिखित के पर्यायवाची बताएँ-
शारीरिक = दैहिक। प्रगट= प्रत्यक्ष, सम्मुख । दस्तकारी = हस्तकला । मौजूदा = कालीन । कोशिश = प्रयास । परिणाम = प्रतिफल । तालीम = सीख । पूर्वज = पितर ।3. संधि विच्छेद करें-
साक्षर = स + अक्षर । एकांगी = एक + अंगी। उत्तराद्द्ध = उत्तर + अर्द्ध । स्वावलंबन = स् + अवलम्बन । संस्कृति = सम् + कृति । बहिष्कार = बहिः + कार । प्रत्येक= प्रति + एक ।अध्यात्म = अधि + आत्म ।
हजम = पचना । हरगिज = किसी भी हाल में । अमल = व्यवहार । हृदयॉकित = हृदय में
ड्रील, भागदौड़ । अग्रदूत = अॅकित ।
शब्द निधि :
प्रतिरोध = विरोध, संघर्ष । उदात्त = उन्नत । उत्तरार्द्ध = बाद का, परवर्ती आधा भाग । स्थूल= मोटा । जागृति = जागरण। एकांगी = एकपक्षीय । सर्वांगीण = सम्पूर्ण, समग्र | अविभाज्य = अविभक्त 'जिसे अलग-अलग न बॉटा जा सके। दस्तकारी = हस्तकोशल, हस्तशिल्प = हाथ की कारीगरी । यांत्रिक = मशीनी, यंत्र पर आधारित । कवायदं = आगे-आगे चलने वाला। दूरगामी = दूर तक जाने वाला । गुजर = निर्वाह, पालन । रक्तरजित = खन से सना हुआ। दक्षता = कौशल । आत्मत्सर्ग = खुद को न्योछावर करना, आत्म-त्याग । कूपमंडूक = कुएँ का मेढ़क, संकीर्ण ।हजम = पचना । हरगिज = किसी भी हाल में । अमल = व्यवहार । हृदयॉकित = हृदय में
ड्रील, भागदौड़ । अग्रदूत = अॅकित ।