लेखक परिचय-
हिन्दी साहित्य के सवर्धक तथा कला जिज्ञासु यतीन्द्र मिश्र का जन्म 1977 में अयोध्या उत्तर प्रदेश में हुआ था। लखनऊ विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम० ए. पास कर साहित्य सृजन में लग गये ।
मिश्र जी मुख्यत: कवि रूप में हिन्दी साहित्य की समृद्ध किये । यदा कदा" "अयोध्या तथा अन्य कविताएँ" और"ड्योढ़ी पर आलाप नामक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इसके साथ-साथ संगीत साधना सबंधित पुस्तक गरिजा भारतीय नृत्य कला पर आधारित "देवप्रिया अपने-आप में महत्व रखता है । कुछ दिनों तक "थाती" पत्रिका का संपादन किये। वर्त्तमान में "सहित" नामक पत्रिका के सम्पादक हैं।
आपको भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद् युवा पुरस्कार, राजीव गाँधी रोष्ट्रीय एकता पुरस्कार आदि अनेकों पुरस्कार से पुरस्कृत किया जा चुका है। आपको केन्द्रीय नाटक अकादमी नई दिल्ली और सराय नई दिल्ली की फेलोशिप भी प्राप्त है।
आलेख परिचय-नौबतखाने (मंदिर का प्रधान द्वार ऊपर मंगल ध्वनि बजाने के लिए| वादक के लिए बैठने के लिए बना स्थान) में इवादत (उपासना), भारतरत्न आदि अनेकों विशिष्ट सम्मान से पुरस्कृत भारत के महान शहनाई वादक "विस्मिल्ला खाँ" की जीवनी साधना के स्वरूपके आधार पर चित्रित किया गया है।.
आलेख परिचय-नौबतखाने (मंदिर का प्रधान द्वार ऊपर मंगल ध्वनि बजाने के लिए| वादक के लिए बैठने के लिए बना स्थान) में इवादत (उपासना), भारतरत्न आदि अनेकों विशिष्ट सम्मान से पुरस्कृत भारत के महान शहनाई वादक "विस्मिल्ला खाँ" की जीवनी साधना के स्वरूपके आधार पर चित्रित किया गया है।.
12. नौबतखाने में इबादत - यतीन्द्र मिश्र
नौबतखाने में इबादत कहानी सारांश
"बिस्मिल्ला खाँ का जन्म "डुमराँव" विहार के संगीत प्रेमी परिवार में 1916 से 1922 के बीच हुआ था। 5-6 वर्ष की अवस्था में वे अपने नाना के घर काशी चले गये। बचपन का नाम अमीरुद्दीन था । इनके मामा सादिक हुसैन तथा अलीबख्श देश के जाने-माने शहनाई वादक थे । उनके नाना भी शहनाई वादक थे।काशी के बाला जी का मंदिर के द्वार पर एक नौबतखाना में इनके नाना-मामा शहनाई बजाते। थे। सुबह होते ही बालाजी के मुख्य द्वार पर शहनाई की मंगल ध्वनि सुनाई पड़ने लगती थी। अमीरुद्दीन भी दोनों मामा के कला से प्रभावित होकर शहनाई फूँकना आरम्भ करता है। 14 वर्ष उम्र में तो बिस्मिल्ला खाँ रियाजी चेला बनकर वाला जी मंदिर के नौबतखाना में जाकर याज करना आरम्म करता है जो रियाज 80 वर्ष की उम्र तक उसी स्थान पर चलता रहा।
भले ही सारा देश बिस्मिल्ला खाँ को महान शहनाई वादक मान लिया हो लेकिन 50 वर्ष की उम्र तक उन्होंने बाला जी के द्वार पर जाकर गायन-वादन के सातों स्वर के लिए इबा त करते रहे, अपने को एक साधारण रियाजी मानकर । वैदिक इतिहास में शहनाई का उल्लेख नहीं है। संगीत शास्त्रों में शहनाई को सुषिर (फूंककर बजाने वाला) वाद्यों में गिना जाता है। अरब देश में जिस बाजा में नरकट का प्रयोग होता है उसको "नय" बाद्य बोलते हैं। "नय" वाद्यों में जो श्रेष्ठ (शाह राजा ) हो उसे शाहनेय अर्थात् शहनाई कहेंगे। शहनाई की दक्षिण भारत के मंगल वद्य "नागस्वरम्" की तरह मंगलवाद्य मानते हैं। मांगलिक अवसरों पर शहनाई की ध्वनि मंगलकारी मानी जाती है। शहनाई के मंगल ध्वनि के नायक बिस्मिल्ला खाँ पाँचों नमाज में सुर पाने का ही इबादत करते रहे । वे नमाज के वाद सजद्े में गिडगिड़ाते कहते थे "मेरे मालिक एक सुर बख्श दें।" गम का पर्व मुहर्रम के अवसर पर भी बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई बजती थी लेकिन गम के स्वर "नौहा" में । मुहर्रम के आठवें दिन दाल-मंडी से लेकर फातमान तक आठ किलोमीटर तक पैदल रोते चलकर "नौहा" बजाते तथा इमाम हुसैन को परिवार वालों के शहादत के अवसर पर
लाखों की आँखों को नम कर देते थे। बिस्मिल्ला खाँ में अंत तक बाल सुलभ हँसती सदैव दिखाई पड़ी । अमीरुद्दीन जब चार साल के थे तो नाना की शहनाई सुनकर आनन्दित हो उठते । जब नाना रियाज से उठकर चले जाते थे तो| वह नाना की शहनाईयों में मीठी वाणी बोलने वाली शहूनाई को खोजने के लिए कई शहनाईयों का मुख से लगाकर खारिज करते थे। जब उनके मामू शहनाई के वादन में सम पर आते तो बालक विस्मिल्ला एक पत्थर पटककर मामू जान को दाद देते थे । अर्थात् चाल साल में ही सम को वे समझ लिए थे। बचपन में उनको फिल्मों का भी शौक था। विशेषकर सुलोचना की फिल्म हर हालत में देखते थे । उसी प्रकार कुलसुम की संगीतमयी कचौड़ी को बड़े ही चाव से खाते थे।
संगीतमयी कचीड़ी अर्थात् जब कुलसुम कड़कड़ाते घी में कचौड़ी डालती तो उससे छन-छ की निकलने वाली आवाज में उन्हें संगीत के स्वर सुनाई पड़ते थे। काशी के भगवान विश्वना बालाजी और संकटमोचन हनुमान के प्रति उनकी श्रद्धा अद्वितीय थी । जब भी के काशी से बा प्रोग्राम में जाते थे तो सबसे पहले विश्वनाथ बाला जी की तरफ मुँह करके शहनाई फूकत, बाद में कार्यक्रम से दर्शकों को मंत्र-मुग्ध करते ।
काशी और गंगा के प्रति भी उनकी आस्था का वर्णन करने योग्य है। जब कोई उन्हें नाम और पैसा कमाने के लिए दूसरी जगह की चर्चा करता तो बिस्मिल्ला खाँ के मुँख से अक्सर निकल्
जाता था कि"क्या करें मियाँ, ई काशी छोड़कर कहाँ जाएँ, गंगा मुइया यहाँ, बाबा विश्वना यहाँ, बालाजी का मंदिर यहाँ, यहाँ हमारे खानदान की कई पुश्तों ने शहनाई बजाई है। हमारे नाना तो वहीं बालाजी मंदिर में प्रतिष्ठित शहनाई बजा रह चके हैं। अब हम क्या करें मरते दम तक न काशी छुटेगी और न शहनाई। जिस जमीन ने. हमें तालीम दी जहाँ से अदब पाई वो कहाँ औरमिलेगी। शहनाई और काशी से बढकर कोई जन्नत नहीं इस धरती पर हमारे लिए ।" वास्तव में बिस्मिल्ला खाँ और उनकी शहनाई को काशी से अलग नहीं माना जा सकता है । एक दिन एक शिष्या ने खाँ साहब से पूछी "बाबा ! आपकी इतनी बड़ी प्रतिष्ठा है। आपको भारतरलन की उपाधी मिल गई। अब आप फटी तहमद (लुंगी) न पहनें, जब कोई आता है तो आप फटी तहमद में ही मिलते हैं, अच्छा नहीं लगता ।
खो साहब मुस्कुराते उत्तर देते-"धत् ! पगली ई भारत रत्न हमको शहनाइया पे मिला है, लुंगिया पे नाहीं। तुम लोगों की तरह बनाव सिंगार देखते तो उमर ही बीत जाती, हा चुकती शहनाई। तब क्या खाक रियाज हो पाता। ठीक है बिटिया, आगे से नहीं पहनेंगे, मगर इतना बताए देते हैं कि मालिक से यही दुआ है, फटा सुर न बख्शें। लुगिया का क्या है आज फटी है, तो कल सिल जायगी । कलाकारों में रियाज की कमी और सच्चे सुर साधकों की कमी से खाँ साहब अफसोस जताते दिखाई- पड़े। सचमुच में आज काशी से संगीत, साहित्य और अदब की परम्पराएँ लुप्त होती जा. रही हैं। लेकिन अभी भी जो कुछ बचा है वह है काशी, में। आज भी काशी संगीत के स्वर पर जागती और उसी के थापों पर सोती है। काशी में मरण "भी मंगल माना जाता है। काशी आनंद कानन है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि काशी के पास उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ जैसा लय और सुर के तमीज सिखाने वाला नायब हीरा रहा है जो हमेशा दो कौमों को एक होने व आपस में भाईचारे के साथ रहने की प्रेरणा देता रहा है । 21 अगस्त 2006 को 90 वर्ष की उम्र में संगीत के महानायक हमेशा के लिए इस संसार से विदा तो हो गये। लेकिन खाँ साहब की शहनाई की
आवाज संगीत कला-प्रेमियों और काशीवासियों के हृदय में सदैव गुँजता रहेगा।
होने के कारण तथा शहनाई में लगने वाली रीड जो नरकट से बनती है, डुमराँव में बहुलता से प्राप्त है, इसलिए डुमराँव की महत्ता अपने-आप में स्थान रखता है।
मुरली, बीन, नागस्वरम् ।। अरब देश में जिस वाद्य यंत्र में नरकट का प्रयोग होता है वह "नय' कहलाता
वाद्यों में जो शाह (राजा, श्रेष्ठ) हो उस शहनय कहेगे। अर्थात् फूँककर बजाये जाने वाला श्रेष्ठ वाद्य यंत्र शहनाई कहलाता है।
भले ही सारा देश बिस्मिल्ला खाँ को महान शहनाई वादक मान लिया हो लेकिन 50 वर्ष की उम्र तक उन्होंने बाला जी के द्वार पर जाकर गायन-वादन के सातों स्वर के लिए इबा त करते रहे, अपने को एक साधारण रियाजी मानकर । वैदिक इतिहास में शहनाई का उल्लेख नहीं है। संगीत शास्त्रों में शहनाई को सुषिर (फूंककर बजाने वाला) वाद्यों में गिना जाता है। अरब देश में जिस बाजा में नरकट का प्रयोग होता है उसको "नय" बाद्य बोलते हैं। "नय" वाद्यों में जो श्रेष्ठ (शाह राजा ) हो उसे शाहनेय अर्थात् शहनाई कहेंगे। शहनाई की दक्षिण भारत के मंगल वद्य "नागस्वरम्" की तरह मंगलवाद्य मानते हैं। मांगलिक अवसरों पर शहनाई की ध्वनि मंगलकारी मानी जाती है। शहनाई के मंगल ध्वनि के नायक बिस्मिल्ला खाँ पाँचों नमाज में सुर पाने का ही इबादत करते रहे । वे नमाज के वाद सजद्े में गिडगिड़ाते कहते थे "मेरे मालिक एक सुर बख्श दें।" गम का पर्व मुहर्रम के अवसर पर भी बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई बजती थी लेकिन गम के स्वर "नौहा" में । मुहर्रम के आठवें दिन दाल-मंडी से लेकर फातमान तक आठ किलोमीटर तक पैदल रोते चलकर "नौहा" बजाते तथा इमाम हुसैन को परिवार वालों के शहादत के अवसर पर
लाखों की आँखों को नम कर देते थे। बिस्मिल्ला खाँ में अंत तक बाल सुलभ हँसती सदैव दिखाई पड़ी । अमीरुद्दीन जब चार साल के थे तो नाना की शहनाई सुनकर आनन्दित हो उठते । जब नाना रियाज से उठकर चले जाते थे तो| वह नाना की शहनाईयों में मीठी वाणी बोलने वाली शहूनाई को खोजने के लिए कई शहनाईयों का मुख से लगाकर खारिज करते थे। जब उनके मामू शहनाई के वादन में सम पर आते तो बालक विस्मिल्ला एक पत्थर पटककर मामू जान को दाद देते थे । अर्थात् चाल साल में ही सम को वे समझ लिए थे। बचपन में उनको फिल्मों का भी शौक था। विशेषकर सुलोचना की फिल्म हर हालत में देखते थे । उसी प्रकार कुलसुम की संगीतमयी कचौड़ी को बड़े ही चाव से खाते थे।
संगीतमयी कचीड़ी अर्थात् जब कुलसुम कड़कड़ाते घी में कचौड़ी डालती तो उससे छन-छ की निकलने वाली आवाज में उन्हें संगीत के स्वर सुनाई पड़ते थे। काशी के भगवान विश्वना बालाजी और संकटमोचन हनुमान के प्रति उनकी श्रद्धा अद्वितीय थी । जब भी के काशी से बा प्रोग्राम में जाते थे तो सबसे पहले विश्वनाथ बाला जी की तरफ मुँह करके शहनाई फूकत, बाद में कार्यक्रम से दर्शकों को मंत्र-मुग्ध करते ।
काशी और गंगा के प्रति भी उनकी आस्था का वर्णन करने योग्य है। जब कोई उन्हें नाम और पैसा कमाने के लिए दूसरी जगह की चर्चा करता तो बिस्मिल्ला खाँ के मुँख से अक्सर निकल्
जाता था कि"क्या करें मियाँ, ई काशी छोड़कर कहाँ जाएँ, गंगा मुइया यहाँ, बाबा विश्वना यहाँ, बालाजी का मंदिर यहाँ, यहाँ हमारे खानदान की कई पुश्तों ने शहनाई बजाई है। हमारे नाना तो वहीं बालाजी मंदिर में प्रतिष्ठित शहनाई बजा रह चके हैं। अब हम क्या करें मरते दम तक न काशी छुटेगी और न शहनाई। जिस जमीन ने. हमें तालीम दी जहाँ से अदब पाई वो कहाँ औरमिलेगी। शहनाई और काशी से बढकर कोई जन्नत नहीं इस धरती पर हमारे लिए ।" वास्तव में बिस्मिल्ला खाँ और उनकी शहनाई को काशी से अलग नहीं माना जा सकता है । एक दिन एक शिष्या ने खाँ साहब से पूछी "बाबा ! आपकी इतनी बड़ी प्रतिष्ठा है। आपको भारतरलन की उपाधी मिल गई। अब आप फटी तहमद (लुंगी) न पहनें, जब कोई आता है तो आप फटी तहमद में ही मिलते हैं, अच्छा नहीं लगता ।
खो साहब मुस्कुराते उत्तर देते-"धत् ! पगली ई भारत रत्न हमको शहनाइया पे मिला है, लुंगिया पे नाहीं। तुम लोगों की तरह बनाव सिंगार देखते तो उमर ही बीत जाती, हा चुकती शहनाई। तब क्या खाक रियाज हो पाता। ठीक है बिटिया, आगे से नहीं पहनेंगे, मगर इतना बताए देते हैं कि मालिक से यही दुआ है, फटा सुर न बख्शें। लुगिया का क्या है आज फटी है, तो कल सिल जायगी । कलाकारों में रियाज की कमी और सच्चे सुर साधकों की कमी से खाँ साहब अफसोस जताते दिखाई- पड़े। सचमुच में आज काशी से संगीत, साहित्य और अदब की परम्पराएँ लुप्त होती जा. रही हैं। लेकिन अभी भी जो कुछ बचा है वह है काशी, में। आज भी काशी संगीत के स्वर पर जागती और उसी के थापों पर सोती है। काशी में मरण "भी मंगल माना जाता है। काशी आनंद कानन है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि काशी के पास उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ जैसा लय और सुर के तमीज सिखाने वाला नायब हीरा रहा है जो हमेशा दो कौमों को एक होने व आपस में भाईचारे के साथ रहने की प्रेरणा देता रहा है । 21 अगस्त 2006 को 90 वर्ष की उम्र में संगीत के महानायक हमेशा के लिए इस संसार से विदा तो हो गये। लेकिन खाँ साहब की शहनाई की
आवाज संगीत कला-प्रेमियों और काशीवासियों के हृदय में सदैव गुँजता रहेगा।
बोध और अभ्यास
पाठ के साथ
1. डुमरॉव की महत्ता किस कारण से है ?
उत्तर- महान शहनाईवादक भारतरत्न बिस्मिल्ला खा को जन्मस्थली और उनके पैतक निवासहोने के कारण तथा शहनाई में लगने वाली रीड जो नरकट से बनती है, डुमराँव में बहुलता से प्राप्त है, इसलिए डुमराँव की महत्ता अपने-आप में स्थान रखता है।
2. सुषिर वाद्य किन्हें कहते हैं ?" शहनाई शब्द की व्युत्पत्ति किस प्रकार है ?
उत्तर- सुषिर वाद्य यंत्र उसे कहते हैं जो फूक कर बजाया जाता है जैसे शहनाई, बंशी,मुरली, बीन, नागस्वरम् ।। अरब देश में जिस वाद्य यंत्र में नरकट का प्रयोग होता है वह "नय' कहलाता
वाद्यों में जो शाह (राजा, श्रेष्ठ) हो उस शहनय कहेगे। अर्थात् फूँककर बजाये जाने वाला श्रेष्ठ वाद्य यंत्र शहनाई कहलाता है।
3. बिस्मिल्ला खाँ सजदे में किस चीज क लिए गिड़गिड़ाते थे ? इससे उनके व्यक्तित्व सुषिर का कौन-सा पक्ष उद्घाटित होता है?
उत्तर- बिस्मिल्ला खाँ प्रतिदिन के पाँचा नवाज के बाद सजदे में सुर पाने के लिए गिड्गिडातेहुए इबादत्त करते थे"मेरे मालिक एक सुर बख्श दें।"
इससे उनके व्यक्तित्व का वह पक्ष उद्घाटित होता है-खाँ साहब अपने-आपको कभी परिपूर्ण नहीं माना । बल्कि 80 वर्ष की शहनाई वादन यात्रा में अपने-आपको एक रियाजी ही मानते रहे तथा बालाजी के नौबतखाने में अपने को रियाजी मान इबादत करते रहे।
4 मुहर्रम पर्व से बिस्मिल्ला खाँ के जुड़ाव का परिचय पाठ के आधार पर दें ।
उत्तर- मुहर्रम पर्व सिया मुसलमानों के लिए गम का पर्व है। लोग अपने को संगीत और वाद्य यंत्र से 10 दिनों तक दूर रखते हैं उसमें आठवाँ दिन विशेष रूप से मान्य है। लेकिन बिस्मिल्ला खाँ की वाद्य यंत्र शहनाई जिसकी ध्वनि मंगल कार्यों में उपयुक्त मानी जाती है, आठवं रोज अवश्य बजती थी। वे दालमंडी से फातमान तक की आठ किलो मीटर की दूरी में पैदल चलकर "नौहा" बजाकर लाखों लोगों की आँखों को इमाम हुसैन और उनके परिवार वालों को शहादत पर्व पर गम से नम कर देते थे। इस प्रकार शहनाई के साथ बिस्मिल्ला खाँ मुहर्रम पर्व से विशेष रूप से जुड़े रहते थे।5. "संगीतमय कचौड़ी" का आप क्या अर्थ समझते हैं?
उत्तर- "संगीतमय कचौड़ी" की चर्चा करते हुए लेखक ने कहा है कि बिस्मिल्ला खाँ कचौड़ी खाने के शौकीन थे। वे प्रतिदिन कुलसुम की "संगीतमंय कचौड़ी" का स्वाद तो लेते ही थे साथ-साथ वहाँ रियाज भी हो जाता था। वह इस प्रकार से कुलसुम कराही के कड़कड़ात घो में जब कचौड़ी डालती थी तो कराही से निकलती छन-छन की आवाज में खाँ साहब को संगीत का सारे आरोह-अवरोह दिख जाते थे।6. बिस्मिल्ला खाँ जब काशी से बाहर प्रदर्शन करते थे तो क्या करते थे ? इससे हमें क्या सीख मिलती है ?
उत्तर- बिस्मिल्ला खाँ सम्पूर्ण जीवन जब तक काशी में रहे प्रात: होते ही बालाजी के मंदिर के प्रधान द्वार पर बने नौबत खाना में पहुँचकर अपने को रियाजी मानकर तथा बालाजी का सानिध्य समझकर रियाज प्रारम्भ करते रहे । जब कभी वे काशी से बाहर प्रदर्शन करने के लिए जाते थे तो प्रदर्शन से पूर्व भगवान काशी विश्वनाथ और बालाजी की तरफ मुख करके दोनों के नाम पर पहले शहनाई के स्वर देते थे। मानो वे अपने उस्ताद को प्रथम स्वर अर्पित करते हों। इससे हमें सिख मिलती है कि जीवन में अपने इष्ट को सदैव याद रखने से ऊँची सफलता प्राप्त होती है। अथवा जिससे या जहाँ से हमें सफलता मिली है उसके प्रति कृतज्ञता समर्पण का भाव कभी भी नहीं भूलना चाहिए।7. "बिस्मिल्ला खाँ का मतलब बिस्मिल्ला खा कीशहनाई एक कलाकार के रूप में बिस्मिल्ला खाँ का परिचय पाठ के आधार पर दें।
उत्तर- बिस्मिल्ला खाँ की ख्याति बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई वादन से हुई। यानी उन्होंने जो कुछ भी कलाकार क्षेत्र में प्राप्त किया, उसका कारण उनका शहनाई वादन ही है, क्योंकि खाँ साहब की एक शिष्या ने जब पूछी थी कि अब आप भारत रत्न प्राप्त कर लिए हैं तो भी फटी लुंगी क्यों पहनते हैं। तो खाँ साहब ने बड़े ही सहज स्वर में कहा था-धत् ! पगली ई भारत रत्न हमको शहनईया पे मिला है, लुगिया पर नाहीं । इसीलिए तो बिस्मिल्ला खाँ विश्वख्यित शहनाई वादक में अग्रणी है। जब कभी बिस्मिल्ला खाँ की हाथ में शहनाई आई और शहनाई में फुँक पड़ी तो शहनाई की आवाज में मानो जादू आ गया हो शहनाई को कलाकारी शुरू होते ही सारा वातावरण सुर-तालऔर लय में लीन हो जाता था,। श्रता उनके स्वर को सुनकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त कर झूमने लगत थे मानो परवरदिगार की कृपा, उस्ताद की नसीहत और गंगा मइया की कृपा एक साथ मिलकर सातो स्वर के साथ अवतरित हो गयी हो । खाँ साहब एक महान कलाकार के रूप में इसलिए भी प्रसिद्धि पाई क्योंकि वो अपने के
कभी परिपूर्ण नहीं माना। इसौलिए तो 80 वर्ष के कला जीवन में भगवान बालाजी के सम्मु सदैव रियाजी के रूप में अपना दाखिला देते रहे । सचमुच में बिस्मिल्ला खाँ की कलाकारी सदैव हरेक व्यक्ति के लिए प्रेरणादायक बच
रहेगा ।
8. आशय स्पष्ट करें-
(क) फटा सुर न बख्शें। लुगिया का क्या है, आज फटी है, तो कल सिल जायगी।
उत्तर- फटा सुर न बख्शें। यह बाक्य में विस्मिल्ला खाँ परवरदिगार से दुआ माँगते थे कि बराब स्वर कभी न प्रदान करें। लुंगी फट जायगी तो पुनः सिल जायेगी लेकिन शहनाई से जब फटा ( खराब) स्वर निकलेगा तो फिर मान-सम्मान सब खराब हो जाएगा।(ख) काशी संस्कृति की पाठशाला है.।
उत्तर- इस वाक्य का आशय यह है कि काशी की अपनी संस्कृति है, अपना इतिहास है, अपनी कला है तथा काशी को बिसिमिल्ला खाँ जैसा अपना कलाकार प्राप्त है । अर्थात् अगर संस्कृति या इतिहास को जानने की इच्छा है अथवा कला सीखने की इच्छा है तो काशी जैसा पाठशाला अन्यत्र नहीं मिलेगा।पाठ के आस-पास
1, बिस्मिल्ला खाँ मुहर्रम की आठवीं तारीख को केवल नौहा बजाते थे । कोई राग-रागनी नहीं क्यों, मालूम करें।
उत्तर- मुहर्रम गम का पर्व है जो दस दिन का मनाया जाता है विशेष कर आठवीं तारीख तो अधिक गम का दिन होता है । मुहर्रम के दस दिनों तक राग-रागनी बजना, संगीत समारोह में दाखिल होना सिया मुसलमानों के लिए वर्जित है । इसके बाद भी आठवीं तारीख को बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई बजती थी लेकिन "नौहा । "नौहा" गम का स्वर है जिसे सुनकर काशी के दालमंडी से फातमान तक आठ किलोमीटर के बीच रहने वालों का हृदय गम से नम हो जाता था।2. इस पाठ में किन फिल्म कलाकारों के नाम आए हैं ?
उत्तर- -इस पाठ में बिस्मिल्ला खाँ की पंसीदा कलाकारों में गीताबाली और सुलोचना के नाम आये हैं।3. बिस्मिल्ला खाँ को फिल्मों का शौक था । आप उनके इस शौक को किस तरह देखते हैं और क्यों?
उत्तर- अगर काशी में सुलोचना की फिल्में आई तो खाँ साहब अवश्य देखते थे । यह उनका शौक था क्योंकि किसी भी कलाकार में दूसरों की कला देखने का जबतक शौक नहीं होगा तो अपनी कला के प्रति भी उसका शौक अधूरा ही रहेगा।भाषा की बात
1. रचना के आधार पर निम्नलिखित वाक्यों की प्रकृति बताएँ-
(क) काशी संस्कृति की पाठशाला है।
उत्तर- सरल वाक्य।(ख) शहनाई और डुमराँव एक-दूसरे के लिए उपयोगी है ।
उत्तर- सरल वाक्य।(ग) एक बड़े कलाकार का सहज मानवीय रूप ऐसे अवसरों पर आसानी से दिख जाता है।
उत्तर- सरल वाक्य।(घ) उनको यकीन है, कभी खुदा यू ही उन पर मेहरबान होगा।
उत्तर- मिश्र वाक्य ।(छ) घत् ! पगली ई भारत रत्न हमको शहनईया पे मिला है, लुंगिया पे नहीं।
उत्तर- संयुक्त वाक्य ।2 निम्नलिखित वाक्यों से विशेषण छौँटिए--
(क) इसी बाल सुलभ हँसी में कई यादें बंद हैं।
उत्तर- " बाल सुलभ" और "बंद" विशेषण हैं।(ख) अब तो आपको भारत रत्न मी मिल चुका है, यह फटी तहमद न पहना करें।
उत्तर- " भारत रत्न" और "फटी विशेषण हैं।(ग) शहनाई और काशी बढ़कर कोई जन्नत नहीं इस धरंती पर हमारे लिए ।
उत्तर-" जन्नत" विशेषण है ।(घ) कैसे सुलोचना उनकी पसंदीदा हिरोइन रही थी। बड़ी रहस्यमय गुस्कुराहट के साथ गालों पर चमक आ जाती है।
उत्तर- "पसंदीदा" और "रहस्मय"।12. नौबतखाने में इबादत शब्दनिधि :
ड्योढ़ी = दहलीज । नौबतखाना = प्रवेश द्वार के ऊपर मंगल ध्वनि बजाने का स्थान । रियाजm= अभ्यास । मार्फत = द्वारा । श्रृंगी = सींग का बना वाद्ययंत्र । मुरछंग वाद्ययंत्र । नेमत = ईश्वर की देन, वरदान, कृपा। सजदा = माधा टेकना। इबादत = उपासना तासीर = गुण, प्रभाव, असर । श्रुति = शब्द-ध्वनि । ऊहापोह = उलझन, अनिश्चितता । तिलि्म = जादू । गमक = खुशबू, सुगंध। अजादारी = मातम करना, दुख मनाना । बदस्तूर कायदे सेतरीके से । नैसर्गिक = स्वाभाविक, प्राकृतिक । दाद शाबाशी, प्रशंसा, वाहवाही । तालीम - शिक्षा । अदब = कायदा, साहित्य । अलहमदुलिल्लाह = तमाम तारीफ ईश्वर के लिए । जिजीविषा जीने की इच्छा। शिरकत = शामिल होना। वाजिब = लिहाज शिष्टाचार, छोटे-बड़े के प्रति उचित भाव। गोया= जैसे कि, मानो कि । रोजनामचा
दैनंदिन, दिनचर्या । विग्रह = सपूरक = पूरा करने वाला, पूर्ण करने वाला । मुराद् = आकांक्षा, अभिलाषा । दुश्चता = बुरी चिता । बरतना = बर्ताव करना, व्यवहार करना। सलीका = शिष्ट तरीका । गमजदा = गम में डूबा। सुकून = शांति, आराम । जुनून = उन्माद, सनक। खारिज = अस्वीकार करना। आरोह = चढ़ाव । अवरोह उतार । आनंदकानन = ऐसा बागीचा जिसमें आठों पहरं आनन्द रहे । उपकृत उपकार करना, कृतार्थ करना । तहजीव = संस्कृति, सभ्यता । सेहरा-बन्ना = सेहरा बाँधना, श्रेय देना। नौहा
शहनाई । सरगम = संगीत के सात स्वर (सा रे ग म प ध नी) । नसीहत = शिक्षा उपदेश, सीख एक प्रकार का लोक
सही, उपयुक्त । मतलब = अर्थ मूर्ति । कछार = नदी का किनारा। उकेरी = चित्रित करना, उभारना
तहमद् लुंगी, अधोवस्त्र । शिद्दत = असरदार तरीके से, जोर के साथ । सामाजिक = सुसंस्कृत नायाब = अद्भुत, अनुपम । जिजोविषा = जौने की लालसा ।